समर्पण:
.....सुन ! मेरे ही अंशी सुन वह जो धारे है कब किससे बोले है जो बोले भी है कभी सुने है कौन उसको कौन समझे है सुलाने को तुझे सुनाई ही नहीं कभी लोरी जागता रह कर सुने तो सुन.....
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थारेषणा की ओर से
1977 से 1982 के पंचक की इन रचनाओं के लिए मैं अपने परिजनों के काफ़िले का ऋणी हूँ जिसने बीसियों दिनों के हर क्षण के साथ में भी गीत गोविन्द के जयदेव की केन्दुली और समय की गति पहने पथरीले कोणार्क को पहचानने का एकान्तिक यत्न तो करने दिया ही, कभी डायमंड-हार्बर, दीघा तो कभी जगन्नाथ की पुरी के जल-दर्पण में स्वयं को भीतर तक देखने-पहचानने का विरल अवसर भी लेने दिया। आँख की हद पार तक पसरे सागर को देखता रहा। वह दूर-दूरान्त से बहुत कुछ समेट, उफनता आकाश छूता सा मेरे सामने बहुत कुछ बिछाता रहा। मैं देखता रहा, सुनता रहा उसका अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, छपक छप-छपता रुनझुनता भी। बूंद-बूंद में अपार सागर.....इस बूंद-बूंद अपार सागर ने ही दिखाया एक और सागर-मरे घोंधे सीपियों, गड्डे गल-गच्चियों वाला सागर। नीला तो नहीं था यह सागर, तरल भी नहीं था, सूखा निपट सूखा, आँख की हद पार तक पसरा हुआ। रोम-रोम ही नहीं अतलान्त तक पीला। जर्द नहीं, सोनल पीला, इस सागर की तरह उठ-उठ उफनता, आकाश छूता सा.....इसका भी अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, रुनझुनाता हुआ भी। नीले सागर में भी देह के धर्म के लिए यत्नों की नाव खेती हुई जीवेषणा। यह भी नहीं देखती रोशनी के थंभ से घर की सीध, जाल भरे जाने तक चलाए ही जाती चप्पू दिसावर-दिसावर। यह जीवेषणा मौसम दफ्तर की खबर भी नहीं सुनती, झूमती जाती है-झंझावातों से अपने विराट का होना बनाए रखने। नीले नागर में हिलक-हिलक उघड़ गया एक सूखा-पीला सागर मेरा भी। जिस की छाती पर न रोशनी के थंभ और न काली-पीली आंधियों के उफनाव की सूचना के मौसम दफ्तर। न जाल न मछलियां पर धूप से तपे समुंदर में देह के धर्म के लिए झूझती हुई वही जीवेषणा-थारेषणा। ऐसे दर्शाव ने बनी इन प्रस्तुतियों के साथ यह प्रणत कामना कि सच और संवेदना का धनी पाठक यह तो जाने ही कि सागर ही है मेरा जकक, था नहीं, सागर ही है मेरा घर। ये शब्द यदि थारेषणा को उसके पूरे भीतर-बाहर सहित रूपायित नहीं कर पाए हैं तो यह मेरे एकमात्र उपकरण-भाषा की मेरी रचनात्मक क्षमता की दुर्बलता है। धोरों का जीवट अपना होना बनाए रखने की अब तक की यात्रा में बांचे-रचे जाने के हर-हर प्रयत्न से जो बड़ा ही है। नीला-नीला सागर होने के ‘मिथ’ से भी अधिक व्यापक और विराट भी। जिस रेत ने मुझे रचा, उस रेत के मुझ में होते हुए रचाव पाठक तक पहुंचे और पाठक रेत के विराट सागर को देखे, पहचाने ही नहीं बोले भी। पाठक का बोलना मेरे लिए चरैवैति-चरैवैति ही रहेगा। ::
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1.रात तो रिसती
रात तो रिसती झरती बरसती ही रही है मेरे होने की जड़ों तक को किया है नम भीतर ही भीतर खोखल रच दिए हैं और अब तो दिन भी ज़र्द अंधियारों की पोटली खोले-रखे हैं आगे और पीछे मैं गोया रेत हूँ रेत या कि फक़त मिट्टी जबकि मैंने होने के हर-हर जतन को आदमकद किया है पाताल से उलीचे स्वर दिए हैं हुआ है यह कि एक मैं हूँ और कोलाहल खड़ा है खोल कर जबड़ा गूंगी गुफा का आंत तक निचोड़ पी ली गई है गूंज गूंज की लौटी हुई आहट मैं हूँ कि कहीं गहरे धंसता हुआ फरोले हूँ पाताल को खरोंचे हूँ कि गूंजे गूंजता जाए गूंगी गुफा के जबड़े से निकलकर कि रेत ही नहीं हूँ मैं फक़त मिट्टी भी नहीं हूँ धरती की फटी है कूख जब-जब तभी मेरा होना हुआ मार्च’ 77
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2.अब तो उठ जा थार
अब तो उठ जा थार बहुत तप लिया उठ जा माना अनहोनी तो हुई कि पूछे-कहे बिना ही जाने कौन उतार ले गया तेरी सागरिया नीलाई? कैसे-कैसे कितने थे वे हाथ बीन ले गए जल से अन्तरंग अंतस पर सीपी में गर्भाते मोती? कौन कहे वे हाथ अंजुरी हुए कि कुम्भ कि जेब परातें भर-भर कर ले गए छपक छप-छपता फेन जाल भर सोन मछरियां?
दूर दूर से लुट-लुट आता बिन सीढ़ी आकाश भिगोने का तेरा आवेग पछाड़े खा-खा कर बिछ जाता रेत जिसे रसमसा लिया करती रग-रग में
वैजंती तट पर गीत अगीतों में आलाप भरा करता तेरा संवेग न जाने कौन सी गया
असुरशरण दाता भी नहीं रहा तू जिसको पी जाने देवों ने आत्र्त अर्चना की अगस्त्य की
तू तो था गोताखोरों का जीवट तुझ पर झूला करती नावें कंदील जलाए घर की सीध दिखाती थी मछुआरिन कि मछुआ लदा हंसी से लौट रहा है
तू अनथाया सागर था न फिर कोई दूजा अगस्त्य क्यों-कैसे आकर बैठ गया तेरे तट चुल्लू भर पी गया तुझे वह
आँखों की सीमा के पार हिलकते रहे अछोरी थार एक इसी दुर्दान्त घटित पर ही तू पसर गया ऊपर को आँखें फाड़े एक निमिश ही पलक झपकता तो दिख जाते वर्तमान के हाथों होते हुए भूत मन्वंतर मगर एक भी रेख नहीं घिस पाई अब तक जिनकी
भीतर से बाहर खुद की ही एक झलक भर की ही हर कर लेता दिखता तुझको तेरी ही फेरी-चकफेरी देता मैं मेरा संसार- हाथों को मठोठ बूझाली़ धरती करता खेत खेत को पांव-हाथ से लीक एषणा बीज गया हूँ पोरों फटी बिवाई तांबे का तन चुआ-चुआ कर सींच गया हूँ धरती तब पक-पक जन्मे फली बाजरी काचर मोठ मतीरे
सीधी नहीं आँख तिरछी कर कभी-कभी तो देखा करता..... आँखों में झलमलती हीरों की ढिगलियां पलकों के छाजले झटक कर फूस छाटियां भरते जाने कहां-कहां से तेरे ही जायों जैसे माणस जैसे ही बतियाते जेबों से निकाल खोभ ही जाते पीठ कलेजे में पोले मुंह वाली लोहे की परखी केवल मुझको छोड़ सभी कुछ का बाजार बनाया जाता जहाँ-तहाँ
देखले अब भी त्राटक तोड़ तू अपना ही आधा मुझ में देख कि आँखें जिससे जोड़ तापता बैठा है तू कबसे देवता है कभी तो टूठेगा ही। उसकी ही अबरक सी भळ-भळ किरणें कंगूरों पर ही झाड़ सुबह की महंदी तेरे सन्दलिया चेहरे कों फेंचें शूर्पनखायें होकर और सूर्य शून्य की खूंटी ओंधा टंगा अलाव सरीखा बरसाये खीरे झुलसे सिणगारी सीवण घास जड़ाऊ सिट्टे न्यौते बिना महूरत साधे उतरे आए साल बटो ही टिड्डी-फाका और कातरा चाट जाय सपनों का हरियल आंगन कुतरे बेल उमर की
यह यह तेरा आराध्य धूप का तवा चिपाता फिरे कलेजे से कल झळती बूंद-बूंद को भाप बना ले जाए फिर यह आहट किए बिना ही पच्छिम से लौटी रम्भाती गो-धूली की ओट सरकता दरका जाए एड़ी-चोटी
ठरी हड्डियों के नीचे ओटाई आगुन से अनजान धाबल काम्बल खोल उतरे अनाहूत कल्मष पोर-पोर में ठर जाए फिर भी अनदेखा कर यह सारा विकराल खनकता चूड़ा चूल्हे को सीरनी चढ़ाए हाँडी में राँधे मोठ कोकरू पुरसे खदबदते धीरज का खिचड़ा कोरों में कुनमुनता पानी
खाया पिया हुआ तेरा यह पौरुष घास बिछा कर बीती सारी रख सिरहाने सोये कल को तान सुख की यह भी नींद बरछी जैसी लगे हवा को मरी ईस्के बैरन बांज उठे खोले उंचास हाथ झाड़ती जाय चूल्हे आंख दिये में काली पीली राख उपाड़े झूपे-टपरे खींच उतारे काया कात-कातकर खेतों को पहनाए गए धोतिये पाटती जाय कुए ताल तलाई ओंधे करती जाय पणीढे हांफे हलर-फलर कर खूंट किनारों देख अखूटी सांस प्यास की
दुख-दुखकर सुखियाती प्राण में साधे हुए खड़ी पानी की साध कि अब अब उठले कल्पों से सोया थार तो उठलें पड़े उनींदे धोरे ‘‘आयो-आयो’’ टणकारे जो अभी दिगम्बर मौनी फोग खेजड़ों बाड़-बोअटी थार-आकड़ों का सन्नाटा कोलाहल हो जाए कहां छिपा बैठा है औघड़ पिये समंदर कहे अब तो यह थार कि गूंगा तप केवल दुःख का विस्तार कि ऊपरवाला नहीं कूख का जाया पला देवता ही देता वरदान कहे तो सही पीले स्याह बगूलों का कुबेर तो बूझे भुरठ मठोठती मुट्ठी बज-बजकर पाताल तोड़दे बाहर ला रखदे अगस्त्य को चीरदे पेट बह आए अदबदा समंदर ! सितम्बर’ 79
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3.धूप
धूप केवल धूप खा अघिया गया यह सन्नाटा चिटखा है भीतर से सुलगने लग गया है लप-लप लहकेगा दूर तक जा जा हंसेगी आंच इसकी झुलस जाएगी छुआ तो हो भर रहेगी राख आ गिरी जो सूखे पत्ते-सी किसी की याद मार्च’ 82
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4.रेत जाये
रेत जाये दर्द की यह प्यास कैसी है कि आँखें जोड़ सूरज से पिये जाए पानी की तरह आवाजों को फरवरी’ 77
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5.चिटखा है
दब-दब चिंथ-चिंथ चिटखा है भीतर ही भीतर सुलग गया है दर्द रेत का हवा तो पहले से ही बांधे बैठी बैर पी-पी लपक गई है आंच आंखों को झुलस गई है अब जो आएं आंसू कहां रखेंगे अगस्त’ 77
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6.बिछा हुआ है
बिछा हुआ है सीवण का आसन सोने की चौकी भले उसे तू सन्नाटे का शिलाखंड भर कह दे था अनसुना अदेखा करजा बोला है बोले है बजा बज-बजता जाए है इकतारा..... ............. सागर है मेरे भीतर उतर कर देख रहा आकाश उगटी है कि नहीं चांद की टिकुली, रात ने पहनी है कि नहीं तारोंवाली बंधेज, उगेरी है कि नहीं लहर ने सांय-सांयती राग बिलावल, ठंडी नींद उतार उठे अन्तस ही भरे भैरवी का आलाप,
जाल पोटली कांधे ऊपर लाद खोल खूंटे से नाव मछेरा चप-छप चप्पू चले दिसावर नीला-नीला सा यह सागर जो मेरे भीतर है उसी में नहा चढ़े चढ़ता जाए शिखरों पर सूरज, धूप देखती रहे उसे आंखें चौड़ाए सारे भीतर को खंगार भर लिए मोती सोन मछरियां और उधर वह रांध निवाले छवां गई आंगन में खुले गुलबिया हाथ रचें कोलाहल खाली हो-हो पिटें पीटें आवाजें तब वह चुग-चुग चुने परोसे
थका सूरज सरका जाए कंदील उठे सिंदूरिन जला रखे ड्योढ़ी पर कल्मष तो कांपे ही थर-थर सिहरा-सिहरा दूर-दूर पर और आंख में झलमलती सी आस लौटना देखे, दिखाए भी वह रोशनी की झीनी लरजाई सीध- लौटो लौट आओ घर यहीं है लगते ही किनारे नाव कुलांचें भर गया है आखा घर और तू है कि रोज शोर के जंगल में जा धंसे है न देखे है किसी को तू फिर तू भी तो नहीं दिखता किसी को तू भी तो वहां की होड़ दौड़े है फटा-चिथरा हुआ लौटे है घर जेब में ही नहीं सोच में मुंह में भरे हुए जंगल जनवरी’ 82
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7.मुझ पर तेरा होना
मुझ पर तेरा होना पहली जरूरत है मेरे होने की और तू अक्सर ही नहीं होता है मुझ पर, अपने पर रखे रहने तुझे हुआ मैं रेत के विंध्याचलों का एक यायावर, खोजे गया हूँ आंखें फाड़ तुझको
फटी चिरती बिवाइयों से जो झरा है उसे ही चाट हूंके गई है रेत की हर हर पहाड़ी- दे और दे पानी मुझे आ गया होता जो सामने तू मांग लेता हो गया होता मैं दूसरा वामन जो तू मुझ में समा जाने क्षितिज से उतर आता बलि सा.....
तू दिखा भी है कभी तो इतनी दूर कि छू लेने भर को तरसती ही रही है आंख मैं तो फिर भी सपना देखता रहा हूँ- दूधियाये तू घुल-घुल घुले फुहार ही होकर रहे तू मुझ पर ............ और जो याद आ जाए तुझे वह खोज- पत्थरों वन-प्रान्तरों को लांघ पंचवटी जाकर ही ठहरी सामने हो गई उसके मर्यादा किनारे रख, उठा वह लिपटा भिंचा तो राम ही पिघला बह-बह गया तर-ब-तर लौटी भरत सी किन्तु मैं कब से दिशाओं से दिशाओं क्षितिज आकाश में पाताल में भी तुझे खोजे हूँ अकेला
सर पर सूर्य को ढोता हुआ मैं अभिशप्त अश्वत्थामा हूँ दागा ही नहीं मैंने किसी का गर्भ
न सही मुझे पर यह तो देख आधे निर्वसन आकाश पर अब भी बिछी है मेरे कबूतर ने बुनी जो नीलई मलमल कि दूधियाये तू घुल-घुल घुटे लिपटा कर मुझे भिंचे तू पिघले बरस जाए तर-ब-तर करदे मुझे तू मार्च’ 82
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8.आखर
आखर ऐसे दिए उन्होंने जिन्हें मैं बूझ न पाऊं बूझ न पाऊं तो क्या बोलूं कैसे बोलूं और कभी बोलना चाहा भी है मैंने जीभ पर ऐसे आखर चढ़े कि फिसल टूट बिसरे पहले ही मुझको
यूं गूंगा रखने में ही तो पर्वत होना था उनका आखर-आखर जोड़ अरथ बोला करती वाणी से अलगा दिया गया मैं अब तो इतना ही सोचे हूँ एक जुलाहा आए ले जा रखदे आंगन की चटसार, जुलाहिन के हाथों से औंधी पड़ी कठौती पर थपथपती राग सुनूं जुलाहे की आंखों हाथों से तन-बुन फलक हुआ करते वे आखर देखूं, सीखूं, गाता फिरूं गली चौराहों फरवरी’ 82
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9.क्या कहूं
क्या कहूं कैसे कहूं इस सरफिरी बरसात से कि जब बनाए आंख में ही घर बनाए और आंख से तो सम्हाले भी नहीं सम्हले यह घर बाहर आ-आकर खिरे कलझल बिखर सूख जाए सूनी निपट सूनी ही रहे है आंख
मेरी न माने देख सुन तो ले उसे भी वह बुलाए मनुहारें करे बरसों अनसुना रहने का उसका दुख छटपटा कर हूंकता बिफरता है थका पसरा कहे ही जा रहा है मांड मुझ पर मांड मांड तो सही इस बार ओ री सरफिरी बरसात सूख कर दरके हुए चौड़े कलेजे पर घर मांड अपना अगस्त’ 78
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10.लो उठ गए
लो उठ गए तेरी सराय छोड़ कर हरफ़ों के जात्री जाना जो है उन्हें इस दिशा के पार
देखने भर को ही ठहरे हैं यहां होकर गए हों होने की जरूरत से बळते हुए हम आहंग
जाते-जाते आबनूसी कमरे की किसी दीवार पर सफ़ेद-ए-सुब्ह जैसी वैसे नहीं ऐसे भी कटती हैं हदें धुएँ की मांड कर वे चल दिए हों
ऐसी किसी सम्भावना पर फेर मसना कर रही हो तुम आया ही नहीं अब तक यहां से आगे दूर तक निकल जाने के इरादे से काई
खाली है सराय आएं ठहरे ही रहें वे जिन्हें आगे न जाना हो केवल लौटना हो
मील का पत्थर ही बांचने भरके लिए जो आ टिकें क्या निस्बत हो उनसे तुम्हारी पहचानो ही क्यों उन्हें तुम भीतर से वह भी खूब पहचाने बिना हुआ भी है किसी के साथ का कोई भी अर्थ अब तक! और फिर भीतर से पहचान लेना तो तभी हो जब मैं या फिर तुम्हारा अपना मैं ममेतर हो ऐसा तो हुआ ही नहीं है अभी तक
जाना ही है लो चल दिए आंख के आगे छाते हुए धुआंसे में डूबी-डूबी सी लगे तुझको आहटें परछाइयां तोड़ लेने तू अपना गूंगा अकेलापन
इतना ही याद कर लेना गया है जो अभी जी लेने भर को ही बनी यह सराय छोड़ कर बोल कर बोल कर चलते हुए हरफ़ों का काफ़िला है वह जनवरी’ 82
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11.तूने तूने ही तो
तूने तूने ही तो जाया है न मुझको फिर क्यों नहीं है रंग मेरा तेरी देह जैसा तेरे इस शरीर के भीतर बहुत भीतर नहीं है न कहीं मेरे ही रंग रस जैसा रचा तन फिर उस देह पर यह पीली सिर्फ पीली देह क्यों है मां और मैं भी अपना होना जान लेने से अभी तक एक मुर्दा व्यूह में ही क्यों जिये हूँ जबकि मैंने तो सीखा ही नहीं तेरी कूख में रहते किसी भी ब्यूह में जा धंसने का सबक फिर कौन हैं वे रच गए हैं व्यूह दर व्यूह चारों ओर मेरे
इस सूर्य जैसा तो नहीं कोई मेरा पिता स्वीकारा ही नहीं जिसने मुझ जैसे किसी को एक याचक को होने का हिस्सा काट कर देने से पहले तक
तू पांचाली तो नहीं है न मां कि पति हों पांच एक हारा हो जुए में भुजाओं का धनी दूजा मठोठियां खाए रहा बगलें ही झांका किया तीजा धनंजय और छुटके दो बळे तो ऊपर से पर अन्तर-आत्मा तक पिघल ठर गए नकुल-सहदेव जैसे मुझ में अनवरत बोला किया है जो उसी को तो निकाल ला रखा है आज तेरे सामने यह अनवरत बोलारू ही मेरी पपड़ाई हुई वह प्यास है मां जिसने मेरे पूरे भीतर को किया है झांग बाहर ही फैंके गया है और मैंने भी इस बुदबुदाते फेन को छीटों से मार देने अंजुरी भर पानी के लिए इन ढूहों धोरों को उलीचा है पानी तो पाताल में था मां हाथ आए मरे घोंघे शीपियां गळगच्चिये कह-कह गए हैं तेरी मां तो नीली थी यह पीली कैसे हो गई है बोलती थी कल-कलती सी ‘राग रग-रग से निसरता था’ वही निरी गूंगी और तू.....निपट तांबा..... कहां से ले आई यह तन मैं नियोगी तो नहीं नहीं हूँ न मां यही तो तू भी जानती है न नीलबर्णा थी दु्रपद की बेटी द्रौपदी नहीं है न तू वैसे किसी प्रारम्भ उपसंहार का कोई भी कारण
नहीं रे नहीं मैं पांचाली नहीं हूँ वरे ही नहीं मैंने पांच हारते मुझको फिर तेरे पिता होते
पाप भी नहीं है तू मेरी कुआंरी उम्र का जो कह दूं कोई कायर सूर्य है तेरा पिता मैं नहीं वैसे किसी प्रारम्भ उपसंहार का कोई एक भी कारण
मैं, मैं तेरी मां हूँ मैंने ही जाया है तुझे और तेरा बाप वह रहा अकेला एक ही आकाश पूछ उससे क्यों नहीं मिलता है तेरा रंग मुझ से पीली क्यों हुई यह देह मेरी?
सुन मेरे दूध से नहाये बेटे सुन मैं धरती हूँ न धारती हूँ फिर फाड़ती हूँ कूख और जन्म आता है तू मेरा हमरूप तेरी आंख में आकाश तेरा पिता और तू कहे है मैं बोलूं..... बोलते ही बिफर जाऊं तो.....तो..... सुन मेरे ही अंशी सुन वह जो धारे है कब किससे कैसे बोले है जो बोले भी है कभी सुने है कौन कौन कैसे समझे है!
सुलाने को तुझे सुनाई ही नहीं कभी लोरी जागता रह कर सुने तो सुन.....
एक औरत थी और था देवों का देव इन्दर लम्पट हो गया देखा जो वल्कली सौन्दर्य लूटा खसोटा राक्षस हो अतिथि देवता ने भार्या तो थी वह मां भी थी किसी की करती ही क्या वह पत्थर सिर्फ पत्थर होकर रह गई अहिल्या सी जो लिया था आदमजात राजा जनक ने भी मुंह चिचियाकर ही रह गया पति गौतम वैसी ही नारी सी भुभुक्षु पवन के उंचास हाथों मैं भी तो लूटी खसोटी गई मैं जो नीलांजला थी कंटियल जीभों ने शिराओं तक खुरच चाटा फिर हड्डियां भी पिसी कोई भी नहीं बोला तेरा पिता भी नहीं पर जीवेशणा को किसने चाटा-पीसा है बता तो.....
बच रही इस रेत भर से पहले रचा खुद को फिर इसे धारा धारे ही रही हूँ फिर गाभण हुई हूँ पूरब की किरणें खा दिशाओं की हवाएं पी पोशी है कूख सातों रंग रचे हैं रेत में
सुन मेरी ममता के छोटे से बड़े आकाश सुन रेत के सारे रचावों का अकेला एक पौरुष तू और तू कहे है मैं बोलूं.....फिर बिफर जाऊं नहीं बेटे नहीं तेरे बाप के चुप से अघा कर जब भी बिफरी हूँ मेरा अपना ही रचाव उजड़ा है बोलने भर से हांडी कठौती में दरारें पड़ गई हैं सर पर छवाया फूस का छाजन उड़ा है नंगे आंगने रसोई को सर पर बैठने के आदी हो गए इस सूरज के संपोलों ने उतर कर सीधे डस लिया है इसलिए मुझे मत कह मैं बोलूं बिफर जाऊं
हां जो तेरे भीतर अनवरत बोले है जिसने तेरे पूरे भीतर को किया है झाग बाहर ला रखा है उस उस प्यास को ही । करला और तीखी
धूप से जल-जल होते हुए मेरे कुन्दन उस प्यास से ही खोद मेरे रेतीले वक्षस्थलों उदरान्तलों को खोद कलकलती नदी सी ठहर जाऊंगी मैं तेरी अंजुरी में देखेगा तू मैं अब भी नीलांगना हूँ मैं तेरी मां हूँ मई’ 82
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12.क्या कहें
क्या कहें किसको कहें कैसी तलाश थी देखा ही नहीं लिए हुए हमें उतारती ही गई कुआं.....नदी..... समुंदर.....तलहटी शहर जंगल भीतर तक कड़वा गए सब जून’ 78
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13.दसमाले ऊंचा है
दसमाले ऊंचा है बेगानापन सड़कों गलियों में टहले है पहियों पर बैठी खामोशी कोरी आँखों में लिखा हुआ है टूटे हरफ़ों के मलबे का बड़ा शहर है अक्टूबर’ 77
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14.फिरे बांधता
फिरे बांधता आवाजों को गली सड़क सन्नाटा किसे भेज रोशनी बुलाऊं पहरेदार अंधेरा अप्रैल’ 77
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15.फूटी है
फूटी है पीड़ा की हांडी थकें न दो कलझलती आंखें एक शिला मुझ को दे दीजे बांधे रहूं मुहाने दोनों नवम्बर’ 77
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16.सांस-सांस
सांस-सांस रसमसती रहती रेत अंगुलियों से होता रहता रचाव प्रतिमाओं का सन्नाटे के शिलाखंड पर क्षण की छैनी उकेर दिया करती है भाषा मैं-तुम
मैं-तुम प्रतिरूपों से भी वही-वही तुतलाया जाता आंगन गली चौक जी जाया करते यहीं यहीं लगता है रंगवती हो गई जिन्दगी की अभिलाशा ओ मैं ओ तुम उसे भी कह दो जहां झुका करती है आंख अर्चना की वे होते हैं प्रतीक प्रतिरूप यही एषणा आज अनागत यही
प्रतिरूपों और प्रतीकों पर जब-जब लगता है प्रश्न तब-तब उत्तर की खातिर अकुलाती हुई एषणा बोला करती बिना राग आलाप जिया जाता है कैसे? जनवरी’ 80
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17.पटरियां पहिये
पटरियां पहिये ब्रेक गेयर भी झटकालो सुन्न सूज तो नहीं गए हैं हाथ-पांव
सायरन धड़-धड़ भक भक सर्र उड़ गए न कानों के पर्दे
कोयलों के कुए गुबराती चिमनियां फाड़ों मिचमिचाओ दीदे दिख जाए कुछ
अटका रखी है सुबह धूप मौसम दस माथों हजार हाथ वाले सिरमट के देवदारुओं ने उचकलो झाड़दो छींका हाथ लग जाए एक भी
चटखारे नहीं लेती सांय सांयती सुरसा फुट-फुट फुस-फुस टस-टस चाटती चोखो चीखलो गड़ाप गड़प निगल लिए जाने
उधर देखो उधर कांच के झुरमुट से तक-ताक झांके है वह ढेर हो जाओ तुम इस-उस किनारे या फिर बीच में ही तभी निकल आएं अररड़ाते हुए बुलडोजर सपाट जाएं रहेगा ही नहीं निशान किसी के कुछ भी होने का अधमिटी सी छाप पर रख पांव यहां तक आ भी जाए कोई सरफिरी तलाश तो थोड़ा सा और आगे कर दिया जाना है उसका ऐसा ही होकर न होना
हैरत में हो न तुम लौटने की खातिर ही निकले थे घर से और आ पहुंचे यहां
यहां.....तुम..... आए नहीं भाई लाए गए हो लाए गए हो टिच-टिच हांक तड़तड़ा कर इस शहर.....हिश्शश.....जंगल में जुलाई’ 81
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18.धर्म था उनका
धर्म था उनका मुझे निकट रखना निभाया भी पर पुजारी तो बने ही रहना था उन्हें कैसे होने देते हिस्सा मुझे अपनी छाया का
कुंती नहीं रही मेरे होने का कारण राधा भी नहीं थी परोटने वाली धाय भी नहीं थी छांट-छींटों से ही हो गया खेजड़ा मैं किससे जुडूं मैं
किससे जुड़ो तुम उगे ही नहीं ऐसा कुछ ऊसर ही रखी गई जमीन और जोड़ दिया तुम्हें मुझसे मैंने ही दिया देता ही गया तुम्हें मेरे मैं का मेरा साथ होने का वास्ता कि दिया गया सब कुछ घर नहीं गोदाम है सील गई गांठों का तुम्हारा भी हक बनता है जिन पर वह तो स्वाहा-स्वाहा के साथ सुनाया गया था न तुम्हें फिर फैशन भी नहीं की तुमने- पूछ ही लेती मुझसे यह पिरोल ये किनारी-तोड़ ये बहियां यह बंदोबस्त कचरा क्यों है.....
पर तुम तो मेरी मुट्ठी में कसी बीटली से लगी गांठ जो रही कैसे खुलती फिर मैंने खुलने ही कब दिया तुम्हें कह दिया जो भी मैंने तुलछी मान लिया तुमने दे दिया मुझे हजार हां का अंगूठा ठाप कर पक्का दस्तावेज बस बाहर ला-लाकर गोदाम तोड़ा किनारी बहियां लगा गया बटने और-और चीजों से वह तो बदहजम की बीमार होकर डचके थूकने लगी हो जब से तब से ही लगने लगा है चीजें नहीं कपूर था लाता रहा हूँ जो कुछ हो गया है भक्क दूर से ही देखकर आग
देखी है मैंने जले पान सी हथेली थाली कई-कई बार चेहरे पर मांडण हो गया धुंआ
हाथ का ही नहीं समझ का भी कारीगर हूँ न अंदेखा किए रहा हूँ तुम्हारे दूधदार टोपियों तले चेंटी पड़ी कल्मष खांसी के धक्के खा-खाकर बाहर आ पड़े लेवड़े
अब तो थमाता भी हूँ कभी चिमटी भर कपूर उधर ही किए रहता हूँ आंखें कड़ियल जवान हो गया तुम्हारा चुप पूछ न ले अलफी झंझोड़ कर मुझसे- तुम तुम्हीं हो न वह मैं नहीं होने दिया इसे अपने जैसा ही मैं रु-ब-रु जो हो जाता थमा दिया करता बोरसी हांडी माचिस बंद कर लिया करता किवाड़
सच ऐसे सोच से ही भाग जा धंसता हूँ बन गए कागज के गोदाम में और कारियां लगा किवाड़ थामे सुनती हो एकालाप देख कर तुम्हें फिर न देने लगूं कोई और वास्ता रखदी है सामने आज की डाक अक्टूबर’ 79
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