सन्नाटे के शिलाखंड पर

सन्नाटे के शिलाखंड पर

हरीश भादानी


भादनी जी का पूरा परिचय यहाँ पर देखें।

प्रकाशक: धरती प्रकाशन, गंगाशहर, बीकानेर -334004 (राजस्थान)

संस्करण : प्रथम संस्करणः 1982 मूल्यः 22/-

ई-प्रकाशक:


ई-हिन्दी साहित्य प्रकाशन
एफ.डी.-453, साल्टलेक सिटी,
कोलकाता-700106 मो.-09831082737
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[BiN Code: INHN 01-330001-033-2]
संपर्क : हरीश भादानी, छबीली घाटी, बीकानेर दूरभाष : 2530998
[Script: Sannate ka sheelakhand par (Poem) By Harish Bhadani]











 



न्ना

 

टे

के

 

शि

ला

खं



 





 








सन्नाटे के शिलाखंड पर:अनुक्रम


समर्पण

थारेषणा की ओर से

बाकलम हरीश भादानी

अपनी राय दें

1.रात तो रिसती

2.अब तो उठ जा थार

3.धूप

4.रेत जाये

5.चिटखा है

6.बिछा हुआ है

7.मुझ पर तेरा होना

8.आखर

9.क्या कहूं

10.लो उठ गए

11.तूने तूने ही तो

12. क्या कहें

13.दसमाले ऊंचा है

14.फिरे बांधता

15.फूटी है

16.सांस-सांस




17.पटरियां पहिये

18.धर्म था उनका

19.तेरी आंख में हो

20.अरे ओ

21.यादें नहीं

22.आंख मिचौनी

23.स्तूप मीनारों से बनी

24.मैंने तो नहीं चाहा

25.तन पर सूजन

26.कितनी-कितनी

27.हमेशा की तरह

28.गलियों में

29.पानी की साध

30.गहरा ही सही

31.नहीं

32.नदी

33.रोज सुनता हूँ

34.तूने ही

35.हाथ ही तो हैं

36.शब्द ही तो थे







   
समर्पण:


.....सुन ! मेरे ही अंशी सुन
वह जो धारे है
कब किससे बोले है
जो बोले भी है कभी
सुने है कौन
उसको कौन समझे है
सुलाने को तुझे
सुनाई ही नहीं कभी लोरी
जागता रह कर सुने तो सुन.....

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थारेषणा की ओर से


      1977 से 1982 के पंचक की इन रचनाओं के लिए मैं अपने परिजनों के काफ़िले का ऋणी हूँ जिसने बीसियों दिनों के हर क्षण के साथ में भी गीत गोविन्द के जयदेव की केन्दुली और समय की गति पहने पथरीले कोणार्क को पहचानने का एकान्तिक यत्न तो करने दिया ही, कभी डायमंड-हार्बर, दीघा तो कभी जगन्नाथ की पुरी के जल-दर्पण में स्वयं को भीतर तक देखने-पहचानने का विरल अवसर भी लेने दिया।
आँख की हद पार तक पसरे सागर को देखता रहा। वह दूर-दूरान्त से बहुत कुछ समेट, उफनता आकाश छूता सा मेरे सामने बहुत कुछ बिछाता रहा। मैं देखता रहा, सुनता रहा उसका अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, छपक छप-छपता रुनझुनता भी। बूंद-बूंद में अपार सागर.....इस बूंद-बूंद अपार सागर ने ही दिखाया एक और सागर-मरे घोंधे सीपियों, गड्डे गल-गच्चियों वाला सागर। नीला तो नहीं था यह सागर, तरल भी नहीं था, सूखा निपट सूखा, आँख की हद पार तक पसरा हुआ। रोम-रोम ही नहीं अतलान्त तक पीला। जर्द नहीं, सोनल पीला, इस सागर की तरह उठ-उठ उफनता, आकाश छूता सा.....इसका भी अनहद नाद-गरजता हूँ-हाँयता, रुनझुनाता हुआ भी।
      नीले सागर में भी देह के धर्म के लिए यत्नों की नाव खेती हुई जीवेषणा। यह भी नहीं देखती रोशनी के थंभ से घर की सीध, जाल भरे जाने तक चलाए ही जाती चप्पू दिसावर-दिसावर। यह जीवेषणा मौसम दफ्तर की खबर भी नहीं सुनती, झूमती जाती है-झंझावातों से अपने विराट का होना बनाए रखने।
नीले नागर में हिलक-हिलक उघड़ गया एक सूखा-पीला सागर मेरा भी। जिस की छाती पर न रोशनी के थंभ और न काली-पीली आंधियों के उफनाव की सूचना के मौसम दफ्तर। न जाल न मछलियां पर धूप से तपे समुंदर में देह के धर्म के लिए झूझती हुई वही जीवेषणा-थारेषणा।
      ऐसे दर्शाव ने बनी इन प्रस्तुतियों के साथ यह प्रणत कामना कि सच और संवेदना का धनी पाठक यह तो जाने ही कि सागर ही है मेरा जकक, था नहीं, सागर ही है मेरा घर।
ये शब्द यदि थारेषणा को उसके पूरे भीतर-बाहर सहित रूपायित नहीं कर पाए हैं तो यह मेरे एकमात्र उपकरण-भाषा की मेरी रचनात्मक क्षमता की दुर्बलता है। धोरों का जीवट अपना होना बनाए रखने की अब तक की यात्रा में बांचे-रचे जाने के हर-हर प्रयत्न से जो बड़ा ही है। नीला-नीला सागर होने के ‘मिथ’ से भी अधिक व्यापक और विराट भी।
जिस रेत ने मुझे रचा, उस रेत के मुझ में होते हुए रचाव पाठक तक पहुंचे और पाठक रेत के विराट सागर को देखे, पहचाने ही नहीं बोले भी।
      पाठक का बोलना मेरे लिए चरैवैति-चरैवैति ही रहेगा। ::

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1.रात तो रिसती


रात तो रिसती झरती
बरसती ही रही है
मेरे होने की जड़ों तक को
किया है नम
भीतर ही भीतर
खोखल रच दिए हैं
और अब तो दिन भी
ज़र्द अंधियारों की पोटली
खोले-रखे हैं
आगे और पीछे
मैं गोया रेत हूँ रेत
या कि फक़त मिट्टी
जबकि मैंने
होने के हर-हर जतन को
आदमकद किया है
पाताल से उलीचे स्वर दिए हैं
हुआ है यह कि
एक मैं हूँ
और कोलाहल खड़ा है
खोल कर जबड़ा गूंगी गुफा का
आंत तक निचोड़
पी ली गई है गूंज
गूंज की लौटी हुई आहट
मैं हूँ कि
कहीं गहरे धंसता हुआ
फरोले हूँ
पाताल को खरोंचे हूँ कि
गूंजे गूंजता जाए
गूंगी गुफा के
जबड़े से निकलकर कि
रेत ही नहीं हूँ मैं
फक़त मिट्टी भी नहीं हूँ
धरती की
फटी है कूख जब-जब
तभी मेरा होना हुआ
            मार्च’ 77

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2.अब तो उठ जा थार


अब तो उठ जा थार
बहुत तप लिया उठ जा
माना अनहोनी तो हुई
कि पूछे-कहे बिना ही
जाने कौन
उतार ले गया तेरी
सागरिया नीलाई?
कैसे-कैसे
कितने थे वे हाथ
बीन ले गए
जल से अन्तरंग अंतस पर
सीपी में गर्भाते मोती?
कौन कहे वे हाथ
अंजुरी हुए
कि कुम्भ कि जेब परातें
भर-भर कर ले गए
छपक छप-छपता फेन
जाल भर सोन मछरियां?


दूर दूर से लुट-लुट आता
बिन सीढ़ी
आकाश भिगोने का
तेरा आवेग
पछाड़े खा-खा कर बिछ जाता
रेत जिसे
रसमसा लिया करती रग-रग में


वैजंती तट पर
गीत अगीतों में
आलाप भरा करता तेरा संवेग
न जाने कौन सी गया


असुरशरण दाता भी नहीं रहा तू
जिसको पी जाने
देवों ने आत्र्त अर्चना की
अगस्त्य की


तू तो था गोताखोरों का जीवट
तुझ पर झूला करती नावें
कंदील जलाए
घर की सीध
दिखाती थी मछुआरिन
कि मछुआ
लदा हंसी से लौट रहा है


तू अनथाया सागर था न
फिर कोई दूजा अगस्त्य
क्यों-कैसे
आकर बैठ गया तेरे तट
चुल्लू भर
पी गया तुझे वह


आँखों की सीमा के पार
हिलकते रहे
अछोरी थार
एक इसी दुर्दान्त घटित पर ही तू
पसर गया
ऊपर को आँखें फाड़े
एक निमिश ही
पलक झपकता तो दिख जाते
वर्तमान के हाथों
होते हुए भूत मन्वंतर
मगर एक भी रेख
नहीं घिस पाई अब तक जिनकी


भीतर से बाहर
खुद की ही
एक झलक भर की ही हर कर लेता
दिखता तुझको
तेरी ही फेरी-चकफेरी देता
मैं मेरा संसार-
हाथों को मठोठ
बूझाली़ धरती करता खेत
खेत को पांव-हाथ से लीक
एषणा बीज गया हूँ
पोरों
फटी बिवाई
तांबे का तन चुआ-चुआ कर
सींच गया हूँ धरती
तब पक-पक जन्मे
फली बाजरी काचर मोठ मतीरे


सीधी नहीं
आँख तिरछी कर
कभी-कभी तो देखा करता.....
आँखों में झलमलती
हीरों की ढिगलियां
पलकों के छाजले झटक कर फूस
छाटियां भरते
जाने कहां-कहां से
तेरे ही जायों जैसे
माणस जैसे ही बतियाते
जेबों से निकाल
खोभ ही जाते पीठ कलेजे में
पोले मुंह वाली
लोहे की परखी
केवल मुझको छोड़
सभी कुछ का बाजार
बनाया जाता जहाँ-तहाँ


देखले अब भी त्राटक तोड़
तू अपना ही आधा मुझ में
देख कि
आँखें जिससे जोड़
तापता बैठा है तू कबसे
देवता है कभी तो टूठेगा ही।
उसकी ही
अबरक सी भळ-भळ किरणें
कंगूरों पर ही झाड़
सुबह की महंदी
तेरे सन्दलिया चेहरे कों फेंचें
शूर्पनखायें होकर
और सूर्य
शून्य की खूंटी
ओंधा टंगा अलाव सरीखा
बरसाये खीरे
झुलसे सिणगारी सीवण घास
जड़ाऊ सिट्टे
न्यौते बिना
महूरत साधे उतरे
आए साल बटो ही टिड्डी-फाका
और कातरा
चाट जाय
सपनों का हरियल आंगन
कुतरे बेल उमर की


यह यह तेरा आराध्य
धूप का तवा चिपाता फिरे
कलेजे से कल झळती बूंद-बूंद को
भाप बना ले जाए
फिर यह आहट किए बिना ही
पच्छिम से लौटी रम्भाती
गो-धूली की ओट सरकता
दरका जाए एड़ी-चोटी


ठरी हड्डियों के नीचे ओटाई
आगुन से अनजान
धाबल काम्बल खोल उतरे
अनाहूत कल्मष
पोर-पोर में ठर जाए
फिर भी अनदेखा कर
यह सारा विकराल
खनकता चूड़ा
चूल्हे को सीरनी चढ़ाए
हाँडी में राँधे
मोठ कोकरू
पुरसे खदबदते धीरज का खिचड़ा
कोरों में कुनमुनता पानी


खाया पिया हुआ
तेरा यह पौरुष
घास बिछा कर
बीती सारी रख सिरहाने
सोये कल को तान
सुख की यह भी नींद
बरछी जैसी लगे हवा को
मरी ईस्के
बैरन बांज उठे
खोले उंचास हाथ
झाड़ती जाय
चूल्हे आंख दिये में
काली पीली राख
उपाड़े झूपे-टपरे
खींच उतारे
काया कात-कातकर
खेतों को पहनाए गए धोतिये
पाटती जाय
कुए ताल तलाई
ओंधे करती जाय पणीढे
हांफे हलर-फलर कर खूंट किनारों
देख अखूटी सांस प्यास की


दुख-दुखकर
सुखियाती
प्राण में साधे हुए खड़ी
पानी की साध
कि अब अब उठले
कल्पों से सोया थार
तो उठलें पड़े उनींदे धोरे
‘‘आयो-आयो’’ टणकारे जो
अभी दिगम्बर मौनी
फोग खेजड़ों बाड़-बोअटी
थार-आकड़ों का सन्नाटा
कोलाहल हो जाए
कहां छिपा बैठा है औघड़
पिये समंदर
कहे अब तो यह थार
कि गूंगा तप
केवल दुःख का विस्तार
कि ऊपरवाला नहीं
कूख का जाया पला
देवता ही देता वरदान
कहे तो सही
पीले स्याह बगूलों का कुबेर
तो बूझे भुरठ मठोठती मुट्ठी
बज-बजकर
पाताल तोड़दे
बाहर ला रखदे अगस्त्य को
चीरदे पेट
बह आए अदबदा समंदर !
            सितम्बर’ 79

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3.धूप


धूप
केवल धूप खा
अघिया गया
यह सन्नाटा
चिटखा है भीतर से
सुलगने लग गया है
लप-लप लहकेगा
दूर तक
जा जा हंसेगी आंच इसकी
झुलस जाएगी
छुआ तो
हो भर रहेगी राख
आ गिरी जो
सूखे पत्ते-सी
किसी की याद
            मार्च’ 82

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4.रेत जाये


रेत जाये
दर्द की
यह प्यास
कैसी है
कि आँखें जोड़
सूरज से
पिये जाए
पानी की तरह
आवाजों को
            फरवरी’ 77

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5.चिटखा है


दब-दब चिंथ-चिंथ
चिटखा है
भीतर ही भीतर
सुलग गया है
दर्द रेत का
हवा तो
पहले से ही
बांधे बैठी बैर
पी-पी
लपक गई है आंच
आंखों को
झुलस गई है
अब जो
आएं आंसू
कहां रखेंगे
            अगस्त’ 77

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6.बिछा हुआ है


बिछा हुआ है
सीवण का आसन
सोने की चौकी
भले उसे तू
सन्नाटे का
शिलाखंड भर कह दे
था अनसुना
अदेखा करजा
बोला है बोले है
बजा बज-बजता जाए है
इकतारा.....
.............
सागर है
मेरे भीतर
उतर कर
देख रहा आकाश
उगटी है कि नहीं
चांद की टिकुली,
रात ने
पहनी है कि नहीं
तारोंवाली बंधेज,
उगेरी है कि नहीं
लहर ने
सांय-सांयती
राग बिलावल,
ठंडी नींद उतार
उठे अन्तस ही
भरे भैरवी का आलाप,


जाल पोटली
कांधे ऊपर लाद
खोल खूंटे से नाव
मछेरा
चप-छप चप्पू
चले दिसावर
नीला-नीला सा
यह सागर
जो मेरे भीतर है
उसी में नहा
चढ़े चढ़ता जाए
शिखरों पर सूरज,
धूप
देखती रहे उसे
आंखें चौड़ाए
सारे भीतर को खंगार
भर लिए मोती
सोन मछरियां
और उधर वह
रांध निवाले
छवां गई आंगन में
खुले गुलबिया हाथ
रचें कोलाहल
खाली हो-हो
पिटें पीटें आवाजें
तब वह
चुग-चुग चुने परोसे


थका सूरज
सरका जाए कंदील
उठे सिंदूरिन
जला रखे ड्योढ़ी पर
कल्मष तो कांपे ही
थर-थर सिहरा-सिहरा
दूर-दूर पर
और आंख में
झलमलती सी आस
लौटना देखे,
दिखाए भी वह
रोशनी की
झीनी
लरजाई सीध-
लौटो लौट आओ
घर यहीं है
लगते ही किनारे नाव
कुलांचें भर गया है
आखा घर
और तू है कि रोज
शोर के जंगल में
जा धंसे है
न देखे है किसी को तू
फिर तू भी तो
नहीं दिखता किसी को
तू भी तो
वहां की होड़ दौड़े है
फटा-चिथरा हुआ
लौटे है घर
जेब में ही नहीं
सोच में मुंह में
भरे हुए जंगल
            जनवरी’ 82

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7.मुझ पर तेरा होना


मुझ पर तेरा होना
पहली जरूरत है
मेरे होने की
और तू अक्सर ही
नहीं होता है मुझ पर,
अपने पर
रखे रहने तुझे
हुआ मैं
रेत के विंध्याचलों का
एक यायावर,
खोजे गया हूँ
आंखें फाड़ तुझको


फटी चिरती बिवाइयों से
जो झरा है
उसे ही चाट
हूंके गई है
रेत की हर हर पहाड़ी-
दे और दे पानी मुझे
आ गया होता जो सामने तू
मांग लेता
हो गया होता मैं
दूसरा वामन जो तू
मुझ में समा जाने
क्षितिज से उतर आता
बलि सा.....


तू दिखा भी है कभी
तो इतनी दूर कि
छू लेने भर को
तरसती ही रही है आंख
मैं तो फिर भी
सपना देखता रहा हूँ-
दूधियाये तू
घुल-घुल घुले
फुहार ही होकर रहे
तू मुझ पर
............
और जो याद आ जाए तुझे
वह खोज-
पत्थरों
वन-प्रान्तरों को लांघ
पंचवटी
जाकर ही ठहरी
सामने हो गई उसके
मर्यादा किनारे रख,
उठा वह
लिपटा भिंचा तो
राम ही पिघला
बह-बह गया
तर-ब-तर लौटी
भरत सी
किन्तु मैं कब से
दिशाओं से दिशाओं
क्षितिज आकाश में
पाताल में भी
तुझे खोजे हूँ
अकेला


सर पर
सूर्य को ढोता हुआ मैं
अभिशप्त
अश्वत्थामा हूँ
दागा ही नहीं मैंने
किसी का गर्भ


न सही मुझे
पर यह तो देख
आधे
निर्वसन आकाश पर
अब भी बिछी है
मेरे कबूतर ने बुनी जो
नीलई मलमल कि
दूधियाये तू
घुल-घुल घुटे
लिपटा कर मुझे
भिंचे तू
पिघले बरस जाए
तर-ब-तर करदे
मुझे तू
            मार्च’ 82

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8.आखर


आखर
ऐसे दिए उन्होंने
जिन्हें मैं
बूझ न पाऊं
बूझ न पाऊं तो क्या बोलूं
कैसे बोलूं
और कभी
बोलना चाहा भी है मैंने
जीभ पर
ऐसे आखर चढ़े कि
फिसल टूट
बिसरे पहले ही
मुझको


यूं गूंगा रखने में ही तो
पर्वत होना था
उनका
आखर-आखर जोड़
अरथ बोला करती
वाणी से
अलगा दिया गया मैं
अब तो
इतना ही सोचे हूँ
एक जुलाहा आए
ले जा रखदे
आंगन की चटसार,
जुलाहिन के हाथों से
औंधी पड़ी
कठौती पर
थपथपती राग सुनूं
जुलाहे की आंखों
हाथों से तन-बुन
फलक हुआ करते
वे आखर
देखूं, सीखूं,
गाता फिरूं
गली चौराहों
            फरवरी’ 82

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9.क्या कहूं


क्या कहूं
कैसे कहूं
इस सरफिरी बरसात से
कि जब बनाए
आंख में ही घर बनाए
और आंख से तो
सम्हाले भी नहीं सम्हले
यह घर
बाहर आ-आकर खिरे
कलझल बिखर
सूख जाए
सूनी निपट सूनी ही रहे है आंख


मेरी न माने
देख सुन तो ले उसे भी
वह बुलाए
मनुहारें करे बरसों
अनसुना रहने का
उसका दुख
छटपटा कर
हूंकता बिफरता है
थका पसरा
कहे ही जा रहा है
मांड मुझ पर मांड
मांड तो सही
इस बार
ओ री सरफिरी बरसात
सूख कर दरके हुए
चौड़े कलेजे पर
घर मांड अपना
            अगस्त’ 78

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10.लो उठ गए


लो उठ गए
तेरी सराय छोड़ कर
हरफ़ों के जात्री
जाना जो है उन्हें
इस दिशा के पार


देखने भर को ही
ठहरे हैं
यहां होकर गए हों
होने की
जरूरत से बळते हुए
हम आहंग


जाते-जाते
आबनूसी कमरे की
किसी दीवार पर
सफ़ेद-ए-सुब्ह जैसी
वैसे नहीं
ऐसे भी
कटती हैं हदें
धुएँ की
मांड कर
वे चल दिए हों


ऐसी किसी
सम्भावना पर
फेर मसना
कर रही हो तुम
आया ही नहीं
अब तक
यहां से आगे
दूर तक
निकल जाने के इरादे से काई


खाली है सराय
आएं
ठहरे ही रहें वे
जिन्हें आगे न जाना हो
केवल लौटना हो


मील का पत्थर ही
बांचने भरके लिए
जो आ टिकें
क्या निस्बत हो
उनसे तुम्हारी
पहचानो ही क्यों
उन्हें तुम
भीतर से वह भी
खूब पहचाने बिना
हुआ भी है
किसी के साथ का
कोई भी अर्थ अब तक!
और फिर
भीतर से
पहचान लेना तो तभी हो
जब मैं
या फिर
तुम्हारा अपना मैं
ममेतर हो
ऐसा तो
हुआ ही नहीं है अभी तक


जाना ही है
लो चल दिए
आंख के आगे
छाते हुए
धुआंसे में
डूबी-डूबी सी
लगे तुझको
आहटें परछाइयां
तोड़ लेने
तू अपना
गूंगा अकेलापन


इतना ही
याद कर लेना
गया है जो अभी
जी लेने भर को ही बनी
यह सराय
छोड़ कर
बोल कर
बोल कर
चलते हुए
हरफ़ों का काफ़िला है वह
            जनवरी’ 82

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11.तूने तूने ही तो


तूने      तूने ही तो
जाया है न मुझको
फिर क्यों नहीं है
रंग मेरा
तेरी देह जैसा
तेरे इस शरीर के भीतर
बहुत भीतर
नहीं है न कहीं
मेरे ही रंग रस जैसा
रचा तन
फिर उस देह पर
यह पीली सिर्फ पीली देह
क्यों है मां
और मैं भी
अपना होना
जान लेने से अभी तक
एक मुर्दा व्यूह में ही
क्यों जिये हूँ
जबकि मैंने तो
सीखा ही नहीं
तेरी कूख में रहते
किसी भी ब्यूह में
जा धंसने का सबक
फिर कौन हैं वे
रच गए हैं
व्यूह दर व्यूह
चारों ओर मेरे


इस सूर्य जैसा तो नहीं
कोई मेरा पिता
स्वीकारा ही नहीं जिसने
मुझ जैसे किसी को
एक याचक को
होने का हिस्सा
काट कर देने से पहले तक


तू पांचाली तो नहीं है न मां
कि पति हों पांच
एक हारा हो जुए में
भुजाओं का धनी दूजा
मठोठियां खाए रहा
बगलें ही झांका किया
तीजा धनंजय
और छुटके दो
बळे तो ऊपर से
पर अन्तर-आत्मा तक पिघल
ठर गए
नकुल-सहदेव जैसे
मुझ में
अनवरत बोला किया है जो
उसी को तो निकाल
ला रखा है
आज तेरे सामने
यह अनवरत बोलारू ही मेरी
पपड़ाई हुई
वह प्यास है मां
जिसने मेरे
पूरे भीतर को
किया है झांग
बाहर ही फैंके गया है
और मैंने भी
इस बुदबुदाते फेन को
छीटों से मार देने
अंजुरी भर पानी के लिए
इन ढूहों
धोरों को उलीचा है
पानी तो पाताल में था मां
हाथ आए
मरे घोंघे शीपियां
गळगच्चिये कह-कह गए हैं
तेरी मां तो
नीली थी
यह पीली कैसे हो गई है
बोलती थी
कल-कलती सी
‘राग रग-रग से निसरता था’
वही निरी गूंगी
और तू.....निपट तांबा.....
कहां से
ले आई यह तन
मैं नियोगी तो नहीं
नहीं हूँ न मां
यही तो
तू भी जानती है न
नीलबर्णा थी
दु्रपद की बेटी द्रौपदी
नहीं है न तू
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई भी कारण


नहीं रे नहीं
मैं पांचाली नहीं हूँ
वरे ही नहीं मैंने पांच
हारते मुझको
फिर तेरे पिता होते


पाप भी नहीं है तू
मेरी कुआंरी उम्र का
जो कह दूं
कोई कायर सूर्य है तेरा पिता
मैं नहीं
वैसे किसी प्रारम्भ
उपसंहार का
कोई एक भी कारण


मैं, मैं तेरी मां हूँ
मैंने ही जाया है तुझे
और तेरा बाप
वह रहा अकेला
एक ही आकाश
पूछ उससे
क्यों नहीं मिलता है
तेरा रंग
मुझ से
पीली क्यों हुई यह देह मेरी?


सुन मेरे दूध से नहाये
बेटे सुन
मैं धरती हूँ न धारती हूँ
फिर फाड़ती हूँ कूख
और जन्म आता है
तू मेरा हमरूप
तेरी आंख में आकाश
तेरा पिता
और तू कहे है
मैं बोलूं.....
बोलते ही बिफर जाऊं तो.....तो.....
सुन मेरे ही अंशी सुन
वह जो धारे है
कब किससे कैसे बोले है
जो बोले भी है कभी
सुने है कौन
कौन कैसे समझे है!


सुलाने को तुझे
सुनाई ही नहीं कभी लोरी
जागता रह कर
सुने तो सुन.....


एक औरत थी
और था
देवों का देव इन्दर
लम्पट हो गया देखा जो
वल्कली सौन्दर्य
लूटा खसोटा राक्षस हो
अतिथि देवता ने
भार्या तो थी
वह मां भी थी किसी की
करती ही क्या वह
पत्थर सिर्फ पत्थर
होकर रह गई अहिल्या
सी जो लिया था
आदमजात राजा
जनक ने भी मुंह
चिचियाकर ही रह गया
पति गौतम
वैसी ही नारी सी
भुभुक्षु पवन के उंचास हाथों
मैं भी तो
लूटी खसोटी गई
मैं जो नीलांजला थी
कंटियल जीभों ने
शिराओं तक खुरच चाटा
फिर हड्डियां भी पिसी
कोई भी नहीं बोला
तेरा पिता भी नहीं
पर जीवेशणा को
किसने चाटा-पीसा है
बता तो.....


बच रही इस रेत भर से
पहले रचा खुद को
फिर इसे धारा
धारे ही रही हूँ
फिर गाभण हुई हूँ
पूरब की किरणें खा
दिशाओं की हवाएं पी
पोशी है कूख
सातों रंग
रचे हैं रेत में


सुन मेरी ममता के
छोटे से बड़े आकाश सुन
रेत के
सारे रचावों का
अकेला एक
पौरुष तू
और तू कहे है
मैं बोलूं.....फिर बिफर जाऊं
नहीं बेटे नहीं
तेरे बाप के चुप से अघा कर
जब भी बिफरी हूँ
मेरा अपना ही
रचाव उजड़ा है
बोलने भर से
हांडी कठौती में दरारें पड़ गई हैं
सर पर छवाया
फूस का छाजन उड़ा है
नंगे आंगने रसोई को
सर पर बैठने के आदी हो गए
इस सूरज के
संपोलों ने उतर कर
सीधे डस लिया है
इसलिए मुझे मत कह
मैं बोलूं बिफर जाऊं


हां जो तेरे भीतर
अनवरत बोले है
जिसने तेरे
पूरे भीतर को
किया है झाग
बाहर ला रखा है
उस उस प्यास को ही ।
करला और तीखी


धूप से जल-जल
होते हुए मेरे कुन्दन
उस प्यास से ही खोद
मेरे रेतीले
वक्षस्थलों
उदरान्तलों को खोद
कलकलती नदी सी
ठहर जाऊंगी मैं
तेरी अंजुरी में
देखेगा तू
मैं अब भी नीलांगना हूँ
मैं तेरी मां हूँ
            मई’ 82

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12.क्या कहें


क्या कहें
किसको कहें
कैसी तलाश थी
देखा ही नहीं
लिए हुए हमें
उतारती ही गई
कुआं.....नदी.....
समुंदर.....तलहटी
शहर जंगल
भीतर तक
कड़वा गए सब
            जून’ 78

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13.दसमाले ऊंचा है


दसमाले ऊंचा है
बेगानापन
सड़कों
गलियों में टहले है
पहियों पर
बैठी खामोशी
कोरी आँखों में
लिखा हुआ है
टूटे हरफ़ों के मलबे का
बड़ा शहर है
            अक्टूबर’ 77

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14.फिरे बांधता


फिरे बांधता
आवाजों को
गली सड़क
सन्नाटा
किसे भेज
रोशनी बुलाऊं
पहरेदार अंधेरा
            अप्रैल’ 77

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15.फूटी है


फूटी है
पीड़ा की हांडी
थकें न दो
कलझलती आंखें
एक शिला
मुझ को दे दीजे
बांधे रहूं
मुहाने दोनों
            नवम्बर’ 77

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16.सांस-सांस


सांस-सांस
रसमसती रहती रेत
अंगुलियों से
होता रहता रचाव
प्रतिमाओं का
सन्नाटे के
शिलाखंड पर
क्षण की छैनी
उकेर दिया करती है भाषा
मैं-तुम


मैं-तुम
प्रतिरूपों से भी
वही-वही तुतलाया जाता
आंगन गली
चौक जी जाया करते
यहीं यहीं लगता है
रंगवती हो गई
जिन्दगी की अभिलाशा
ओ मैं ओ तुम
उसे भी कह दो
जहां झुका करती है आंख
अर्चना की
वे होते हैं प्रतीक प्रतिरूप
यही एषणा आज
अनागत यही


प्रतिरूपों
और प्रतीकों पर
जब-जब लगता है प्रश्न
तब-तब
उत्तर की खातिर अकुलाती हुई
एषणा बोला करती
बिना राग आलाप
जिया जाता है कैसे?
            जनवरी’ 80

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17.पटरियां पहिये


पटरियां पहिये
ब्रेक गेयर भी
झटकालो
सुन्न सूज तो नहीं गए हैं
हाथ-पांव


सायरन धड़-धड़
भक भक सर्र
उड़ गए न
कानों के पर्दे


कोयलों के कुए
गुबराती चिमनियां
फाड़ों मिचमिचाओ दीदे
दिख जाए कुछ


अटका रखी है
सुबह धूप मौसम
दस माथों
हजार हाथ वाले
सिरमट के देवदारुओं ने
उचकलो झाड़दो छींका
हाथ लग जाए एक भी


चटखारे नहीं लेती
सांय सांयती सुरसा
फुट-फुट फुस-फुस
टस-टस चाटती
चोखो चीखलो
गड़ाप गड़प निगल लिए जाने


उधर देखो उधर
कांच के झुरमुट से
तक-ताक झांके है वह
ढेर हो जाओ तुम
इस-उस किनारे
या फिर बीच में ही
तभी निकल आएं
अररड़ाते हुए बुलडोजर
सपाट जाएं
रहेगा ही नहीं निशान
किसी के कुछ भी होने का
अधमिटी सी छाप पर
रख पांव
यहां तक आ भी जाए
कोई सरफिरी तलाश
तो थोड़ा सा और आगे
कर दिया जाना है उसका
ऐसा ही
होकर न होना


हैरत में हो न तुम
लौटने की खातिर ही
निकले थे घर से
और आ पहुंचे यहां


यहां.....तुम.....
आए नहीं भाई
लाए गए हो
लाए गए हो
टिच-टिच हांक तड़तड़ा कर
इस शहर.....हिश्शश.....जंगल में
            जुलाई’ 81

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18.धर्म था उनका


धर्म था उनका
मुझे निकट रखना
निभाया भी
पर पुजारी
तो बने ही रहना था उन्हें
कैसे होने देते हिस्सा
मुझे अपनी छाया का


कुंती नहीं रही
मेरे होने का कारण
राधा भी नहीं थी परोटने वाली
धाय भी नहीं थी
छांट-छींटों से ही
हो गया खेजड़ा मैं
किससे जुडूं मैं


किससे जुड़ो तुम
उगे ही नहीं ऐसा कुछ
ऊसर ही रखी गई जमीन
और जोड़ दिया तुम्हें मुझसे
मैंने ही दिया
देता ही गया तुम्हें
मेरे मैं का
मेरा साथ होने का वास्ता
कि दिया गया सब कुछ
घर नहीं गोदाम है
सील गई गांठों का
तुम्हारा भी हक बनता है जिन पर
वह तो
स्वाहा-स्वाहा के साथ
सुनाया गया था न तुम्हें
फिर फैशन भी नहीं की तुमने-
पूछ ही लेती मुझसे
यह पिरोल
ये किनारी-तोड़
ये बहियां यह बंदोबस्त
कचरा क्यों है.....


पर तुम तो
मेरी मुट्ठी में कसी
बीटली से लगी गांठ जो रही
कैसे खुलती
फिर मैंने
खुलने ही कब दिया तुम्हें
कह दिया जो भी मैंने
तुलछी मान लिया तुमने
दे दिया मुझे
हजार हां का
अंगूठा ठाप कर पक्का दस्तावेज
बस बाहर ला-लाकर
गोदाम तोड़ा किनारी बहियां
लगा गया बटने
और-और चीजों से
वह तो बदहजम की
बीमार होकर
डचके थूकने लगी हो जब से
तब से ही
लगने लगा है
चीजें नहीं कपूर था
लाता रहा हूँ जो कुछ
हो गया है भक्क
दूर से ही देखकर आग


देखी है मैंने
जले पान सी हथेली थाली
कई-कई बार
चेहरे पर मांडण हो गया धुंआ


हाथ का ही नहीं
समझ का भी कारीगर हूँ न
अंदेखा किए रहा हूँ
तुम्हारे दूधदार टोपियों तले
चेंटी पड़ी कल्मष
खांसी के धक्के
खा-खाकर
बाहर आ पड़े लेवड़े


अब तो थमाता भी हूँ कभी
चिमटी भर कपूर
उधर ही किए रहता हूँ आंखें
कड़ियल जवान हो गया
तुम्हारा चुप
पूछ न ले
अलफी झंझोड़ कर मुझसे-
तुम तुम्हीं हो न वह मैं
नहीं होने दिया इसे
अपने जैसा ही मैं
रु-ब-रु जो हो जाता
थमा दिया करता
बोरसी हांडी माचिस
बंद कर लिया करता किवाड़


सच ऐसे सोच से ही भाग
जा धंसता हूँ
बन गए कागज के गोदाम में
और कारियां लगा किवाड़ थामे
सुनती हो एकालाप
देख कर तुम्हें
फिर न देने लगूं कोई और वास्ता
रखदी है सामने आज की डाक
            अक्टूबर’ 79

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कृपया अपनी राय देंवें।

भाग-2




   



19.तेरी आंख में ही


तेरी आंख में हो
आ गया है दोष
देखे तो है
पर कहे ही जा रहा है
मैं नहीं हूँ
अब समंदर


देखे तो हैं
मैंने भी रतौंधे
तू शायद दिनौंधा है
फिर प्रज्ञा-चक्षु
क्यों नहीं हुआ तू


यह मैं हूँ मैं जिसे
देखे था तूं
उफनता फेनाता
फिर भी चलती थीं मछलियां
पेट के बल
और मछुआरिन
जला कंदील
सीध देती थी
कि मछुआरा
कश्ती भरे
लौट आए घर


फर्क इतना सा ही है
मैं पहले घहघहाता था
और अब
हांय-हांयता हुंआता हूँ
बेड़े ही क्यों
लश्कर भी निगले हैं


पेट के बल
चलती मछलियों के अब
लग गए है पांव
खड़ी रहती है
अब भी मछुआरिन
जला कंदील
कि तन की नाव पर ही
लिए भारा
मछुआ लौट आए
            अगस्त’ 80

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20.अरे ओ


अरे ओ
तेरे बाहर का यह जंगल
भीतर ही
क्यों आ धंसता है
मुझ से पहले
तुझे ही जानना चाहिए
तू खुद उगाता है यह जंगल
या फिर कोई और
मैं तो इतना ही जानता हूँ
मैं ही मुचता हूँ
इसके भीतर आ धंसने से


मैंने नहीं सुना कभी तुझे
जंगल उगाते रहने की
जरूरत पर चीखते
सच मेरे दीदे भी नहीं फटे कभी
तेरे बाहर
जंगल उगाते रहने वालों से
देखा भी नहीं तुझे
कभी उनसे दो-दो हाथ करते
शायद इसीलिए जारी है
जंगल का होना
और हमेशा
भीतर धंसते जाना


मुझ पर आती
मुतवातिर मोचों के बावजूद
मारता रहा हूँ
अपने सवालों के पत्थर
तुझ पर तेरे धीरज पर
तेरे निराकार सोच पर भी
और तो और
जंगल उगाने वालों पर भी
तेरे चारों ओर
जंगल उगाये जाने की
जरूरत पर भी


जंगल उगाए जाने का
सबब जानना
तेरी जरूरत न हो भले
पर पहली जरूरत है
मेरा होना बने रहने की
इसलिए कि
मैं ही तो मुचता हूँ बार-बार
सूखे सपाट आंखों के कोटरों में
क्या देखूं
क्या समझूं
मेरे बोलते-बोलते
आ जाए शायद तुझे भी
उत्तर देने की झुरझुरी
और खोजने लगे
तू कोई सम्बोधन
ले, मैं ही दिये देता हूँ
‘ओ’ कह देना
‘तुम’ थाम लेना
उत्तर से पहले
‘ओ’ और ‘तुम’ का
फर्क तो हरूफ ही कर देंगे


जब भी मुचा हूँ न मैं
बोल ही गया हूँ अंट-शंट
मगर तू रहा है
फक़त घोंघा-बसंत


आज मैं फिर मुचा हूँ
वह भी बांये से
इसलिए अफराकर बिखरे हैं
मुंह से सवाल
तू नहीं मुचता है क्या कभी
किरकिराते नहीं है क्या
दांतों तले अक्षर
थूकने जैसे
होते ही नहीं क्या
सब निगल लेता है क्या
मुचा हुआ नहीं देखते मुझे
तब किस ओट में
रख लिया करते हो खुद को
लगता ही नहीं क्या तुझे
अपने भीतर
मेरा होना
कैसे.....कैसे हो सकता है
कोई भी इतना नितान्त?


जब कि मैं
हर बार छिल-मुच जाने पर
उठा लिया करता हूँ
तेरे ही भीतर धुंआते
अलाव से खीरा
फैंक देता हूँ तुझ पर
मुझे नहीं दिखता
तेरा झुलसना
पर हाँ
फफोलों भरी अपनी हथेलियां तो
रगड़ ही देता हूँ तुझ पर
और तू
तब भी बना रहता है
निरा घोंघा-वसंत!
            सितम्बर’ 78

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21.यादें नहीं


यादें नहीं कह कहते इन्हें
कि कभी कभार ही आएं
या फिर
यूं आती जाएं
कि असल रंग ही न देख पाएं
चीजों का
तू और मैं


मौसम जैसी भी
नहीं होती ये
कि उबटन करें
चुन्नट डालें टहलें


चश्मा भी तो नहीं हैं ये
कि आंखों पर चढ़ा कर
देखते रहें
इमारतें आदमी पाण्डाल
पर कहें कुछ भी नहीं


आईना भी तो देख लेते हैं न
तू और मैं
इतनी हम-आहंग
हम-बगल लगें
कि फुरकें ये
और बोल पड़ें तू और मैं टर्र-टर्र


पांवों में फट-फट
माथे पर ईढूणी सा पोतिया
कांधों पर झूलता झरोखा
बंधा घोतिया लंगोट
कहां नहीं होती ये
तुझ-मुझ पर
तिस पर भी
खोखल मुंह मां
किए ही जाती है फिच-फिच
क्या फबे है रे बेटा
और वह.....


फूटे चूल्हे पर
गोबर से कारी लगाती चनणा
लजा जाती है नवली सी-
कैसा कड़ियल लगे है मेरा रामू
अरे वाह रे
मूमल-चनणा वाले तू-मैं


जूंए काढने ही उतारा है
अपने पर से इन्हें
कभी तूने-मैंने
लगा है न
चूंथी से पकड़
चाम उपाड़ली है किसी ने
सोचना ही छूट गया है
इनसे अलग होना


अब भी समझलें तू-मैं
और कुछ भी नहीं हैं
फकत होना हैं ये
तेरा और मेरा
इनके कहे होता है सोना
जगना जगे ही रहना
उठा देती हैं
तुझे और मुझे
एक ही लोटा सूरज उंडेल कर
भागो रिक्षा हो जाओ
ढोओ ढोते जाओ
हो जाओ कतार
बटन तकुए कलम
धिसो घूमों पीसो पिसो
बजो पीटो पिटते जाओ
पीसा-उलीचा सारा छोड़
झूलते हाथ
पहुंच जाओ उसके सामने
फूं-फूं फूंके है न चूल्हा
निकलता ही नहीं कभी
गोगिया पासा का जादू


खाओ पियो
खारा-खारा धुआं
किया भी है क्या कभी
नौ का तेरह
डूबते ही तो हैं
नाक-आंख तक तू-मैं
जूड़ी ताप न चढ़ जाए
तुझे और मुझे
ओढ़ा देती हैं धाबल रात
घुसे-घुसे
भले कलपें झुरझुराएं
फिर बता
कैसे नहीं है ये
होना तेरा और मेरा


खुर्दबीन से देखती हैं
आंत और माथे में उठती मरोड़ें
तड़-तड़ फटककर साटके
ले जाती हैं तुझे-मुझे
बोट-क्लब, कांच के आगे
जिसके पीछे रखा होता है
जमीन-से-जमीन की खाई पर पुल
महल के कबाड़खाने से
निकलवाई गई सलून
जमींदोज बाजार
बनवाने का सारा हिसाब
बढ़ा तो लें
एक ही पांव तू या मैं
सदा सुहागिन फटाकदार किरच
ऊभी ही रहती है बीच में
हाथ हिला-हिलाकर
कर भी लेते हैं जतन
भीतर जा धंसने का
फट-फूट करही लौटते हैं
अपने बिलों तक


तब ये चुप बांध देती हैं धीरे से
तुझ-मुझ पर
कि सुन लिया करें अध्यादेश
संसद से बाहर आता
बहस का छाणस ही फाक लिया करें


क्या दिखाएं
मोतियाबिंद बिलबिलाती मां को
कि गिरने पर
थूक तो रखे रह
कोई नहीं है सामने
कोरा आसमान है
मस्तूल मकबरे हैं सीमेंट के
तसला छूट जाता है
हक-हकलाती मूमल से
कें-कें हांय-हांयकर
मच चढ़े ज़िद पर
झापड़ रसीद कर
साबित करदें बाप होना
तू और मैं
या फिर होते रहते अपने ही मलबे में
डालते जाएं कचरा
अपनी सुबहों-शामों का
टीन की छत के सपने
उमर जमीन जीने का हक
बता इनमें से
एक भी खूट पाया है क्या अब तक


हांकती ही हैं न ये
तुझे और मुझे
तब आ-आ
कहां-कहां से
ला सकते हैं रुई
ठूंस लेने कानों में
किस-किस अस्पताल से
बंधवाते रह सकते हैं पट्टी
यूं ही होते रहने
यह कि ऐसा ही
होना बनाए रखने
जुड़े ही रहते हैं घाणी से
न हो जाने का डर
खा जो गया है
घाणी से छूट जाने का
एक-एक सोच
ऐसा नहीं वैसा हो जाने का
सपना भी तो नहीं आता
तुझे और मुझे


उससे भी चिपकी रहेंगी ये
ठान लिया है जिसने
फिलहाल चुप रहकर
बालिग होते ही
ठठा लेना तुझ-मुझ पर
तब तक भर के लिए आ
कहते ही रहें
आदमी है तू आदमी हूँ मैं
मजाक थोड़े है जो
एक ही जनम में
हो जाए शहतीर
तेरी-मेरी शक्ल जैसी कोई ज़िद
            मार्च’ 77

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22.आंख मिचौनी


आंख मिचौनी
खेला करती
किस तलघर जा छिपी
रोशनी
गूंगे अंधियारे ने घेरा
शहरीले जंगल में
मुझको
            नवम्बर’ 78

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23.स्तूप मीनारों से बनी


स्तूप मीनारों से बनी
ऊंचाइयाँ
इतिहास की
भूतात्माएं होकर जिएं
बदलाव की हवा की
छुअन भर से ही
हो जाएं जो अस्थिपंजर
वे पूज्य कैसे हों
समय के
हम-रूप न हों जो
उन्हें कैसा नमन
रेत पर खोजें
उन्हीं के पांव पर पांव
क्यों चला जाए


मन बरफ़ का
संगमरमरी हो
देह जिनकी
किसी भी जुलाहे के बुने हों
पहनते हों
गेरूए रक्ताभ पीताम्बर
क्यों छुए कोई
इस तरह की छांह
क्यों समर्पित हों
कोई यहां-वहां
वह कोई हो
या फिर तुम
बोधने भर की ही संज्ञा
संयोजा करे
अणु-परमाणुओं से
एक अक्षर
रूप का आकार
आदमी से आदमी का शब्द
अर्थ होने का यतन


ऐसी एषणा तुम्हारी हो
तुम्हें मेरा नमन
ऐसी निर्मिति तुम्हारी
मेरा नमन
अनागत को आकारने की
ऊर्जा तुम्हारी हो
मेरा नमन
            मई’ 79

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24.मैंने तो नहीं चाहा


मैंने तो नहीं चाहा
कोई भव्य नारायण
मैं नहीं हूँ
संशयों से संतप्त
नर कौन्तेय
मेरे होने
धड़कते रहने की
अपनी आयतें ऋचाएं है
जिनकी हिज्जे किए बिना
फैला दिया जाए
शून्य तक को भेदने
उठा दिया जाए रचाव
जिसकी नींव का
पत्थर न हो मेरी हथेली
सम्बोधन ही
कैसे दूं उसे
जो एषणा
जीवेशणा मेरी नहीं
उसे मैं सांस कैसे लूं
कैसे कहूं उसे
अद्दश्य का द्दष्टा
कैसे अगुआऊं
रखे गए अव्यक्त का
यही है व्यक्त


उड़ाया ही उड़ाया गया
आकाश ही बने रहने
आखिरश
हो ही गई मुझे
पहचान अपनी
सूरज के रु-ब-रु होकर
झुलसती पपड़ियाती
पसरी हुई
धरती हूँ मैं जिसे
मुट्ठियां भर-भर उछाल
रंगे जाते क्षित्तिज
उकेरली जाती दिशाएं


लो मैंने भी
हिमालय को
अर्पित कर दिया है शंख
झालर थमादी है
अतीत को मैंने
सोच के बयाबां से
कभी का
आ गया बाहर
उठे हैं पांव जिस ओर
वह सीध मेरी है
फटेगी यवनिका
वह दिशा सुनिश्चित है
प्रत्यंचा
तूणीर
कर्म का महात्म्य
जो भी बाँचें वे सुन
मेरे चेहरे को
जरूरत ही नहीं
कि रंग पोते
न मेरे भीतर है
मुचा हुआ कोई अहम कि
आकाश का विराट
औंचक देखता जाए


इन हाथों ने
यूं बरती है छैनी
तगारी कलम कि
आदमकद हुआ है समय
यही है
मेरा आज
यही मेरा अनागत
यह मुझसे
मैं इसीसे
गूंजता अतलान्त तक
इत्ता बड़ा अस्तित्व
बर्फ की फुनगियां
जो बिखेरें
वे सुनें देखें
अलगजर उठता
यह आज
अनागत को
अपने ही कद का आकार लेने


आंधियां पीता है
धूप खाता है
और बोलता है
मैं किसी मैदान में
हथियार त्यागे-हाथ बांधे
बृहनला हो गया
अर्जुन नहीं हूँ
और मेरे सामने
रचा गया है
जो भी भव्य नारायण
वह मेरा नहीं
कत्तई मेरा नहीं
            जनवरी’ 77

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25. तन पर सूजन


तन पर सूजन
मन पर घाव
खरोंचे लिए
आंगने आ लेटी
गोधूली
आ गई देखते वह भी
खामुशी
पड़ौसन थी जो
सेके गई
गरम-गरम फोहों से


ठरी-ठरी
आंखों के आगे
खिंच-खिंच खिंची
अतीत की रेखाओं पर
धुनी अंधेरा
रहा फिराता
एक रंग की बुरुश


जाने किसने
होले से उतार ली
काली कामल
खुभोदी
किरण सुबह की
अंगुली पकड़
उठा किया घर बाहर
दिखा-
गली हाथ मांजे थी
पांवों तने खड़ी थी सड़क
मुंह मांज रहा था
शोर सुबह का
            अगस्त’ 80

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26.कितनी-कितनी


कितनी-कितनी
और कैसी-कैसी
होती हैं जरूरतें
तेरी और मेरी


चेहरे पर
एक चुल्लू पूरब
छींट लेने की घड़ी से
तन जाने तक
आंखों में
थकान का मांजा
हो जाती हैं ये
यहां वहां वहां यहां
रख आती हैं ये
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे तगारी


राजा जनक
उर्फ विदेह बनी रहती हैं
आंखें बिचारी
देखना पड़ता ही है उन्हें
देहों से
चूता हुआ झरना
सूंघनी पड़ जाती उनको
मितलियाती गंध


वो जो हैं
तेरी और मेरी
उनके सोने को
कहा भी कैसे जाए नींद
वे सोती हुई भी
बोलती हैं गोया
पूछती हों
पोथियां-निष्णात वर्दियों से
उनके ही
दीक्षान्त भाषण का खुलासा
फेंक देती हों
चिकनी मेज के उस पार
चेहरे पर
मस्टर रजिस्टर
क्या मजाल
जो दिठौने भर ही
लग जाए खरोंच


टोक देखे तो
इन्हें कोई
सूरज को धकेल
थाली थामती
किसी भी एक को
तमतमा जाएंगी
अलाव में पकने पर
खींचली जाती
सुर्ख छड़ियों की मार्निद ये
गर्मा दें
सारा आस-पास
वो.....वो जो गंगा
फूटती है
रसोई में
तकाजों के सारे दहाने
तोड़ देती है
खुद तो खुद
आंगना थाली तक
डूब तिर जाता है उसमें


वे जो हैं
तेरी और मेरी
बोल ही नहीं पाती कि
आंखों में
मांजा तना है कि
हाड़ों में ठनी है होड़
एक दूजे पर
आ बैठ जाने भी
इस तरह इनके
चुप हो जाने को
कह दिया जाए
भले ही नींद पर.....


ये जरूरतें
तेरी और मेरी
तोड़कर
किवाड़ मांजों-तनावों के
देख ही जाती हैं ये
बड़े-बड़े संसार
ले कई-कईयों को साथ
तय कर जाती हैं ये
अनसुनी
अनदेखी दूरियां


नींद में
खुशफ़हम होती
तेरी और मेरी जरूरतों को
कौन समझाए कि-
साथ लेने का कि-
दूरियों को
जोड़ लेने का कि
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे
तगारी का कि-
चिकनी चाम ऊपर शिकन
मांड देने का कि
पीछे छोड़कर भगीरथ को
रसोई के
सारे दहाने तोड़कर
आगे निकलने का कि-
भंभड़ों की चीख से
भय खा
सूखी हुई पर गर्म
छातियों से
चिपक जाने का अर्थ
पोथी पढ़-पढ़
लार होना है तो
तुझको और मुझको
इन जरूरतों की मार पर
फकत बदनाम होना है
धुरी तो हैं ही ये
तेरी और मेरी
देखना तो यह कि
फिरकनी सी
फिराए ही रहें ये
तुझको और मुझको
या फिर
ये ही
फिरकनी सी फिरें फिरती रहें
            दिसम्बर’ 77

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27.हमेशा की तरह


हमेशा की तरह
आज भी
उतार फेंकी है
अपने सर पर से चटाई
चुराली है
सपनों में विसूरते चेहरे से
अपनी आंख
थमक कर पीछे न हो ले
चलने की
नन्ही सी आदत
बांध न ले मुझे
तोतले गले की भैरवी


लटकाकर
कमीज की जगह अपना प्यार
दबाए पांव
मैं आया हूँ बाहर
देहरी के बीच
खड़ी है मेरी हक़ीकत
जिसकी आंखों में फैली है
मेरी सराय
भरे-भरे हाथों लौटने की
मेरी प्रतीक्षा
रुई के फोहों सी
रोटियों की गांठ
थमादी है मेरे हाथ में
शुतुरमुर्ग हुआ
चल दिया हूँ मैं
कूड़े के ढेर में से ही
अदेही सर्वव्यापी
बनाकर रखे गए
सुर्ख सवेरे की तलाश में


न तो दहकता सूर्य
और न ही
सुर्खियां बिखेरती दिशा ही
आई है मेरे सामने
गुम्बदों ताजियों का
तैरता आकाश ही गुजरा है
मेरे ऊपर से


बीमार हवा और
ज़र्द धूप से
सूज गई आंखें
जब भी फिराई है चारों ओर
लोहे के जंगल में ही
पाया है खुद को
ओर झूझने लगा हूँ
दे दी गई आग से
जो मेरी नहीं होती
जो भी बनता है
पिघलता है मुझसे
निगल जाती है सुरसा
दमाग तक झुलस देती है
पेट में भभकी अंगीठी
फेंकता हूँ
भीतर की ओर
रोटियों के साथ पानी


आज भी नहीं बनी है
मेरी यात्रा की तस्वीर
पर जंगल के जमादारों के पास
होती है मशीन
काट-छांटकर
बना लेते हैं
बहुत कुछ मुझसे


दुहरती-तिहरती रहती हैं
कर्कशा आवाजें
रेंकता है सायरन
आजाद कर देते हैं मुझे
लोहे के दांत
जेबां-जोड़-जोड़ में
भर गया होता है नमक
देखता हूँ
खास अन्दाज को
तेवर बदलते
अंधेरा खिलाए जाने के खिलाफ
ऊंचे मचान पर
करते हुए नाटक


सोचता हूँ
आज तो गड़ा ही दूं
इस खास अन्दाज के
तेवर पर
अपनी आंख
जड़लूं कान के किवाड़े
सुनूं ही नहीं
मुट्ठियों में भींचकर
अपना तनाव
बोलता चला जाऊं
बर्फ सी उछलती
आवाजों के बीच
फोड़ दूं मैं अपने
धीरज का अलाव
कहूं-नहीं दिखेगी
कांच में से
जीवित तक़ाज़ों से
किलबिलाती मेरी सराय
बनेगी हीं नहीं


हंसने की हसरत में ही
बाहर से भीतर तक
तार-तार हो गई
मेरी हक़ीक़त की
कोई तस्वीर


ऐसे बोलता ही नहीं
कोई समय
ऐसा भी नहीं होता
उसका शरीर
व्यसनी हो गए हैं हाथ
सुइयां लें
डोरे बंटें पिरायें
सियें सिये जाएं
कतरनी लो कतरनी
चलाओ चलाते ही रहें
कटे उनका बुना
यह जाल
इस सिरे से
उस सिरे तक
            नवम्बर’ 78

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28.गलियों में


गलियों में
भटकते दुख
आ ही गए हैं सड़क पर
देखली है
एक लम्बी सीध
बीच से
लांघा है चौराहा कि
कहने न लग जाए
छूटे गुबार
डूबी हुई आवाज़ की कहानी


वे तो
आसमानों पर टिकाए आंख
नापने को हैं
इतना बड़ा विस्तार
सूंधें हैं हवाएं
लम्बे कर दिए हैं हाथ
कुहासे पोंछ देने
झरोखों के शहर
पहुंचना ही है उन्हें
            दिसम्बर’ 81

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29. पानी की साध


जुत-जुत जुतते
मौन मापते
नागा किये बिना
कोई दिन
सूरज बटोही बैल ऊंट आदमी
बोझ सहेजे कड़ियल कंधे
तभी तभी तो
पुलकती-पुराती है
पानी की साथ
परीढ़े के चेहरे
            मार्च’ 82

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30. गहरा ही सही


गहरा ही सही
अथाह रेत के गर्भ में
फूटता छलछलाता
मिल ही तो जाता है
पानी
अटूट पानी.....
            मार्च’ 82

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31. नहीं


नहीं
आंख की हद तक
कहीं भी तो नहीं सागर
        फिर भी तू
उफनती
भागती है सांय-सांय.....सांय.....
कहां किसमें
जा समाएगी
ओ रेत की नदी


32. नदी

नदी
ओ रेत की नदी
      थम, जरा सी थम
देख तो ले मुझे
हमशक्ल तो नहीं
हम आहैग हूं ही मैं,
एक दरिया में
समाना है मुझे भी
तेरी तरह मुझको भी होना है,
एक तनमन का विराट
फिर अकेले
कहाँ भागे जा रही हो रेत की नदी।
            जून’ 82

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33.रोज सुनता हूँ


रोज सुनता हूँ
कि सुबह
सुलग कर
दोपहर होती ही है
        फिर.....फिर यह
मेरी आंख पर ही
क्यों आ-आ ठरे है-
सुबह की
भलक भर के बाद ही
ठण्डा अंधेरा
            मार्च’ 82

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34. तूने ही


तूने ही
रच दिया होता
        मेरे लिए भी
एक तो
हिलकता नील दर्पण
देखता
पहचान जाता
यह हूँ मैं
            फरवरी’ 82

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35.हाथ ही तो हैं


हाथ ही तो हैं
छानते हैं
सुबह से शाम
        आखी रात
पर्वत दिशा
धरती समुन्दर
अतलान्त को भी


मेरी देह से जुड़े
ये क्या हैं फिर
        तरेड़ा हो नहीं गया है
जिनसे
आंख भर का ही
अंधेरा.....
            फरवरी’ 82

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36.शब्द ही तो थे


शब्द ही तो थे
जिनसे जाना था
तूने मुझे मैंने तुझे


यह जानना
पहचान हो जाता
बंद कमरों से निकाल
        तुझको और मुझको
रच गया होता सड़क
चलते-चलते
बुन ही लेता एक अलफी


तुझसे, फिर मुझसे ही
दुराहा घड़ लिए जाने से पहले
रु-ब-रु हो
आंखें फैंच कर ही उतार लेता चोला
        तेरा और मेरा


फिर तो अलफी पहन
होना ही पड़ता तुझको और मुझको
हम.....केवल हम
जो देख लेते तुम
और मैं भी
        कि जान लेने को
आकाश जैसी पहचान कर देने
जो आया तो दुभाशिये सा
तेरे और मेरे बीच
पर ठर पसर कर
हो गया वह सन्नाटा....सिर्फ सन्नाटा


सुनता गया है.....बोलते क्यों
बड़बड़ाते टसकते तक तुझे मुझे भी
निगला चाट तक गया है
बोला बोलना चाहा है
        जो-जो भी
तूने मुझे मैंने तुझे


और-और अब तो कोरी निपट कोरी
आंख से ही देखता हूँ
मैं तुझे ऐसे ही तू मुझे
        वह जो
पसवाड़े फिरती रही न लू
बलबलाती लू झपट्टामार
        ले गई वह
मुझसे और तुझसे शब्द.....शब्द.....
जिनसे जाना था
मैंने तुझे तूने मुझे
            मई’ 82

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बकलम हरीश भादानी


11 जून 1933 को हवेली में जन्म, धारक-पोषक दोनों अनुपस्थित। कृपात्मक-मर्यादित पोषण से बने भटकाव ने रेडिकलसोचकों के किनारे ला छोड़ा। वजनी शब्दों में सड़काऊ बातें सुनीं तो जुनून में हवेली की आखिरी सीढ़ी भी उतर आया। सड़क पर नारे थे, जुलूस, पर्चे, अखबार, पुलिस, जेल, बहसें, बड़ी-बड़ी योजनायें, टैक्नीकलर सपने.....और भी बहुत कुछ था.....इस बहाव में बी.ए., आधे एम.ए. और कविता ही हाथ लगी।
1961-73 तक वातायन मासिक का सम्पादन प्रकाशन, और जुड़ गया वैचारिक पक्षधरता और सम्प्रेषण की अनिवार्यता का आग्रह। बम्बई-कलकत्ता में कलमी मजूरी, आदिम से आदमी तक (कथासंकलन) संकल्प स्वरो के (काव्य-संकलन) का संपादन।
अधूरेगीत-1959, सपन की गली-1961, हंसिनी या दकी-1962, सुलगते पिण्ड, उजली नजर की सुई-1966 और तेरह वर्ष बाद.....नष्टो मोह.....1979 व अब सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविता संग्रह)।

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हरीश भादानी  आडी तानें सीधी तानें