भाग-2




   



19.तेरी आंख में ही


तेरी आंख में हो
आ गया है दोष
देखे तो है
पर कहे ही जा रहा है
मैं नहीं हूँ
अब समंदर


देखे तो हैं
मैंने भी रतौंधे
तू शायद दिनौंधा है
फिर प्रज्ञा-चक्षु
क्यों नहीं हुआ तू


यह मैं हूँ मैं जिसे
देखे था तूं
उफनता फेनाता
फिर भी चलती थीं मछलियां
पेट के बल
और मछुआरिन
जला कंदील
सीध देती थी
कि मछुआरा
कश्ती भरे
लौट आए घर


फर्क इतना सा ही है
मैं पहले घहघहाता था
और अब
हांय-हांयता हुंआता हूँ
बेड़े ही क्यों
लश्कर भी निगले हैं


पेट के बल
चलती मछलियों के अब
लग गए है पांव
खड़ी रहती है
अब भी मछुआरिन
जला कंदील
कि तन की नाव पर ही
लिए भारा
मछुआ लौट आए
            अगस्त’ 80

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20.अरे ओ


अरे ओ
तेरे बाहर का यह जंगल
भीतर ही
क्यों आ धंसता है
मुझ से पहले
तुझे ही जानना चाहिए
तू खुद उगाता है यह जंगल
या फिर कोई और
मैं तो इतना ही जानता हूँ
मैं ही मुचता हूँ
इसके भीतर आ धंसने से


मैंने नहीं सुना कभी तुझे
जंगल उगाते रहने की
जरूरत पर चीखते
सच मेरे दीदे भी नहीं फटे कभी
तेरे बाहर
जंगल उगाते रहने वालों से
देखा भी नहीं तुझे
कभी उनसे दो-दो हाथ करते
शायद इसीलिए जारी है
जंगल का होना
और हमेशा
भीतर धंसते जाना


मुझ पर आती
मुतवातिर मोचों के बावजूद
मारता रहा हूँ
अपने सवालों के पत्थर
तुझ पर तेरे धीरज पर
तेरे निराकार सोच पर भी
और तो और
जंगल उगाने वालों पर भी
तेरे चारों ओर
जंगल उगाये जाने की
जरूरत पर भी


जंगल उगाए जाने का
सबब जानना
तेरी जरूरत न हो भले
पर पहली जरूरत है
मेरा होना बने रहने की
इसलिए कि
मैं ही तो मुचता हूँ बार-बार
सूखे सपाट आंखों के कोटरों में
क्या देखूं
क्या समझूं
मेरे बोलते-बोलते
आ जाए शायद तुझे भी
उत्तर देने की झुरझुरी
और खोजने लगे
तू कोई सम्बोधन
ले, मैं ही दिये देता हूँ
‘ओ’ कह देना
‘तुम’ थाम लेना
उत्तर से पहले
‘ओ’ और ‘तुम’ का
फर्क तो हरूफ ही कर देंगे


जब भी मुचा हूँ न मैं
बोल ही गया हूँ अंट-शंट
मगर तू रहा है
फक़त घोंघा-बसंत


आज मैं फिर मुचा हूँ
वह भी बांये से
इसलिए अफराकर बिखरे हैं
मुंह से सवाल
तू नहीं मुचता है क्या कभी
किरकिराते नहीं है क्या
दांतों तले अक्षर
थूकने जैसे
होते ही नहीं क्या
सब निगल लेता है क्या
मुचा हुआ नहीं देखते मुझे
तब किस ओट में
रख लिया करते हो खुद को
लगता ही नहीं क्या तुझे
अपने भीतर
मेरा होना
कैसे.....कैसे हो सकता है
कोई भी इतना नितान्त?


जब कि मैं
हर बार छिल-मुच जाने पर
उठा लिया करता हूँ
तेरे ही भीतर धुंआते
अलाव से खीरा
फैंक देता हूँ तुझ पर
मुझे नहीं दिखता
तेरा झुलसना
पर हाँ
फफोलों भरी अपनी हथेलियां तो
रगड़ ही देता हूँ तुझ पर
और तू
तब भी बना रहता है
निरा घोंघा-वसंत!
            सितम्बर’ 78

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21.यादें नहीं


यादें नहीं कह कहते इन्हें
कि कभी कभार ही आएं
या फिर
यूं आती जाएं
कि असल रंग ही न देख पाएं
चीजों का
तू और मैं


मौसम जैसी भी
नहीं होती ये
कि उबटन करें
चुन्नट डालें टहलें


चश्मा भी तो नहीं हैं ये
कि आंखों पर चढ़ा कर
देखते रहें
इमारतें आदमी पाण्डाल
पर कहें कुछ भी नहीं


आईना भी तो देख लेते हैं न
तू और मैं
इतनी हम-आहंग
हम-बगल लगें
कि फुरकें ये
और बोल पड़ें तू और मैं टर्र-टर्र


पांवों में फट-फट
माथे पर ईढूणी सा पोतिया
कांधों पर झूलता झरोखा
बंधा घोतिया लंगोट
कहां नहीं होती ये
तुझ-मुझ पर
तिस पर भी
खोखल मुंह मां
किए ही जाती है फिच-फिच
क्या फबे है रे बेटा
और वह.....


फूटे चूल्हे पर
गोबर से कारी लगाती चनणा
लजा जाती है नवली सी-
कैसा कड़ियल लगे है मेरा रामू
अरे वाह रे
मूमल-चनणा वाले तू-मैं


जूंए काढने ही उतारा है
अपने पर से इन्हें
कभी तूने-मैंने
लगा है न
चूंथी से पकड़
चाम उपाड़ली है किसी ने
सोचना ही छूट गया है
इनसे अलग होना


अब भी समझलें तू-मैं
और कुछ भी नहीं हैं
फकत होना हैं ये
तेरा और मेरा
इनके कहे होता है सोना
जगना जगे ही रहना
उठा देती हैं
तुझे और मुझे
एक ही लोटा सूरज उंडेल कर
भागो रिक्षा हो जाओ
ढोओ ढोते जाओ
हो जाओ कतार
बटन तकुए कलम
धिसो घूमों पीसो पिसो
बजो पीटो पिटते जाओ
पीसा-उलीचा सारा छोड़
झूलते हाथ
पहुंच जाओ उसके सामने
फूं-फूं फूंके है न चूल्हा
निकलता ही नहीं कभी
गोगिया पासा का जादू


खाओ पियो
खारा-खारा धुआं
किया भी है क्या कभी
नौ का तेरह
डूबते ही तो हैं
नाक-आंख तक तू-मैं
जूड़ी ताप न चढ़ जाए
तुझे और मुझे
ओढ़ा देती हैं धाबल रात
घुसे-घुसे
भले कलपें झुरझुराएं
फिर बता
कैसे नहीं है ये
होना तेरा और मेरा


खुर्दबीन से देखती हैं
आंत और माथे में उठती मरोड़ें
तड़-तड़ फटककर साटके
ले जाती हैं तुझे-मुझे
बोट-क्लब, कांच के आगे
जिसके पीछे रखा होता है
जमीन-से-जमीन की खाई पर पुल
महल के कबाड़खाने से
निकलवाई गई सलून
जमींदोज बाजार
बनवाने का सारा हिसाब
बढ़ा तो लें
एक ही पांव तू या मैं
सदा सुहागिन फटाकदार किरच
ऊभी ही रहती है बीच में
हाथ हिला-हिलाकर
कर भी लेते हैं जतन
भीतर जा धंसने का
फट-फूट करही लौटते हैं
अपने बिलों तक


तब ये चुप बांध देती हैं धीरे से
तुझ-मुझ पर
कि सुन लिया करें अध्यादेश
संसद से बाहर आता
बहस का छाणस ही फाक लिया करें


क्या दिखाएं
मोतियाबिंद बिलबिलाती मां को
कि गिरने पर
थूक तो रखे रह
कोई नहीं है सामने
कोरा आसमान है
मस्तूल मकबरे हैं सीमेंट के
तसला छूट जाता है
हक-हकलाती मूमल से
कें-कें हांय-हांयकर
मच चढ़े ज़िद पर
झापड़ रसीद कर
साबित करदें बाप होना
तू और मैं
या फिर होते रहते अपने ही मलबे में
डालते जाएं कचरा
अपनी सुबहों-शामों का
टीन की छत के सपने
उमर जमीन जीने का हक
बता इनमें से
एक भी खूट पाया है क्या अब तक


हांकती ही हैं न ये
तुझे और मुझे
तब आ-आ
कहां-कहां से
ला सकते हैं रुई
ठूंस लेने कानों में
किस-किस अस्पताल से
बंधवाते रह सकते हैं पट्टी
यूं ही होते रहने
यह कि ऐसा ही
होना बनाए रखने
जुड़े ही रहते हैं घाणी से
न हो जाने का डर
खा जो गया है
घाणी से छूट जाने का
एक-एक सोच
ऐसा नहीं वैसा हो जाने का
सपना भी तो नहीं आता
तुझे और मुझे


उससे भी चिपकी रहेंगी ये
ठान लिया है जिसने
फिलहाल चुप रहकर
बालिग होते ही
ठठा लेना तुझ-मुझ पर
तब तक भर के लिए आ
कहते ही रहें
आदमी है तू आदमी हूँ मैं
मजाक थोड़े है जो
एक ही जनम में
हो जाए शहतीर
तेरी-मेरी शक्ल जैसी कोई ज़िद
            मार्च’ 77

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22.आंख मिचौनी


आंख मिचौनी
खेला करती
किस तलघर जा छिपी
रोशनी
गूंगे अंधियारे ने घेरा
शहरीले जंगल में
मुझको
            नवम्बर’ 78

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23.स्तूप मीनारों से बनी


स्तूप मीनारों से बनी
ऊंचाइयाँ
इतिहास की
भूतात्माएं होकर जिएं
बदलाव की हवा की
छुअन भर से ही
हो जाएं जो अस्थिपंजर
वे पूज्य कैसे हों
समय के
हम-रूप न हों जो
उन्हें कैसा नमन
रेत पर खोजें
उन्हीं के पांव पर पांव
क्यों चला जाए


मन बरफ़ का
संगमरमरी हो
देह जिनकी
किसी भी जुलाहे के बुने हों
पहनते हों
गेरूए रक्ताभ पीताम्बर
क्यों छुए कोई
इस तरह की छांह
क्यों समर्पित हों
कोई यहां-वहां
वह कोई हो
या फिर तुम
बोधने भर की ही संज्ञा
संयोजा करे
अणु-परमाणुओं से
एक अक्षर
रूप का आकार
आदमी से आदमी का शब्द
अर्थ होने का यतन


ऐसी एषणा तुम्हारी हो
तुम्हें मेरा नमन
ऐसी निर्मिति तुम्हारी
मेरा नमन
अनागत को आकारने की
ऊर्जा तुम्हारी हो
मेरा नमन
            मई’ 79

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24.मैंने तो नहीं चाहा


मैंने तो नहीं चाहा
कोई भव्य नारायण
मैं नहीं हूँ
संशयों से संतप्त
नर कौन्तेय
मेरे होने
धड़कते रहने की
अपनी आयतें ऋचाएं है
जिनकी हिज्जे किए बिना
फैला दिया जाए
शून्य तक को भेदने
उठा दिया जाए रचाव
जिसकी नींव का
पत्थर न हो मेरी हथेली
सम्बोधन ही
कैसे दूं उसे
जो एषणा
जीवेशणा मेरी नहीं
उसे मैं सांस कैसे लूं
कैसे कहूं उसे
अद्दश्य का द्दष्टा
कैसे अगुआऊं
रखे गए अव्यक्त का
यही है व्यक्त


उड़ाया ही उड़ाया गया
आकाश ही बने रहने
आखिरश
हो ही गई मुझे
पहचान अपनी
सूरज के रु-ब-रु होकर
झुलसती पपड़ियाती
पसरी हुई
धरती हूँ मैं जिसे
मुट्ठियां भर-भर उछाल
रंगे जाते क्षित्तिज
उकेरली जाती दिशाएं


लो मैंने भी
हिमालय को
अर्पित कर दिया है शंख
झालर थमादी है
अतीत को मैंने
सोच के बयाबां से
कभी का
आ गया बाहर
उठे हैं पांव जिस ओर
वह सीध मेरी है
फटेगी यवनिका
वह दिशा सुनिश्चित है
प्रत्यंचा
तूणीर
कर्म का महात्म्य
जो भी बाँचें वे सुन
मेरे चेहरे को
जरूरत ही नहीं
कि रंग पोते
न मेरे भीतर है
मुचा हुआ कोई अहम कि
आकाश का विराट
औंचक देखता जाए


इन हाथों ने
यूं बरती है छैनी
तगारी कलम कि
आदमकद हुआ है समय
यही है
मेरा आज
यही मेरा अनागत
यह मुझसे
मैं इसीसे
गूंजता अतलान्त तक
इत्ता बड़ा अस्तित्व
बर्फ की फुनगियां
जो बिखेरें
वे सुनें देखें
अलगजर उठता
यह आज
अनागत को
अपने ही कद का आकार लेने


आंधियां पीता है
धूप खाता है
और बोलता है
मैं किसी मैदान में
हथियार त्यागे-हाथ बांधे
बृहनला हो गया
अर्जुन नहीं हूँ
और मेरे सामने
रचा गया है
जो भी भव्य नारायण
वह मेरा नहीं
कत्तई मेरा नहीं
            जनवरी’ 77

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25. तन पर सूजन


तन पर सूजन
मन पर घाव
खरोंचे लिए
आंगने आ लेटी
गोधूली
आ गई देखते वह भी
खामुशी
पड़ौसन थी जो
सेके गई
गरम-गरम फोहों से


ठरी-ठरी
आंखों के आगे
खिंच-खिंच खिंची
अतीत की रेखाओं पर
धुनी अंधेरा
रहा फिराता
एक रंग की बुरुश


जाने किसने
होले से उतार ली
काली कामल
खुभोदी
किरण सुबह की
अंगुली पकड़
उठा किया घर बाहर
दिखा-
गली हाथ मांजे थी
पांवों तने खड़ी थी सड़क
मुंह मांज रहा था
शोर सुबह का
            अगस्त’ 80

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26.कितनी-कितनी


कितनी-कितनी
और कैसी-कैसी
होती हैं जरूरतें
तेरी और मेरी


चेहरे पर
एक चुल्लू पूरब
छींट लेने की घड़ी से
तन जाने तक
आंखों में
थकान का मांजा
हो जाती हैं ये
यहां वहां वहां यहां
रख आती हैं ये
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे तगारी


राजा जनक
उर्फ विदेह बनी रहती हैं
आंखें बिचारी
देखना पड़ता ही है उन्हें
देहों से
चूता हुआ झरना
सूंघनी पड़ जाती उनको
मितलियाती गंध


वो जो हैं
तेरी और मेरी
उनके सोने को
कहा भी कैसे जाए नींद
वे सोती हुई भी
बोलती हैं गोया
पूछती हों
पोथियां-निष्णात वर्दियों से
उनके ही
दीक्षान्त भाषण का खुलासा
फेंक देती हों
चिकनी मेज के उस पार
चेहरे पर
मस्टर रजिस्टर
क्या मजाल
जो दिठौने भर ही
लग जाए खरोंच


टोक देखे तो
इन्हें कोई
सूरज को धकेल
थाली थामती
किसी भी एक को
तमतमा जाएंगी
अलाव में पकने पर
खींचली जाती
सुर्ख छड़ियों की मार्निद ये
गर्मा दें
सारा आस-पास
वो.....वो जो गंगा
फूटती है
रसोई में
तकाजों के सारे दहाने
तोड़ देती है
खुद तो खुद
आंगना थाली तक
डूब तिर जाता है उसमें


वे जो हैं
तेरी और मेरी
बोल ही नहीं पाती कि
आंखों में
मांजा तना है कि
हाड़ों में ठनी है होड़
एक दूजे पर
आ बैठ जाने भी
इस तरह इनके
चुप हो जाने को
कह दिया जाए
भले ही नींद पर.....


ये जरूरतें
तेरी और मेरी
तोड़कर
किवाड़ मांजों-तनावों के
देख ही जाती हैं ये
बड़े-बड़े संसार
ले कई-कईयों को साथ
तय कर जाती हैं ये
अनसुनी
अनदेखी दूरियां


नींद में
खुशफ़हम होती
तेरी और मेरी जरूरतों को
कौन समझाए कि-
साथ लेने का कि-
दूरियों को
जोड़ लेने का कि
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे
तगारी का कि-
चिकनी चाम ऊपर शिकन
मांड देने का कि
पीछे छोड़कर भगीरथ को
रसोई के
सारे दहाने तोड़कर
आगे निकलने का कि-
भंभड़ों की चीख से
भय खा
सूखी हुई पर गर्म
छातियों से
चिपक जाने का अर्थ
पोथी पढ़-पढ़
लार होना है तो
तुझको और मुझको
इन जरूरतों की मार पर
फकत बदनाम होना है
धुरी तो हैं ही ये
तेरी और मेरी
देखना तो यह कि
फिरकनी सी
फिराए ही रहें ये
तुझको और मुझको
या फिर
ये ही
फिरकनी सी फिरें फिरती रहें
            दिसम्बर’ 77

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27.हमेशा की तरह


हमेशा की तरह
आज भी
उतार फेंकी है
अपने सर पर से चटाई
चुराली है
सपनों में विसूरते चेहरे से
अपनी आंख
थमक कर पीछे न हो ले
चलने की
नन्ही सी आदत
बांध न ले मुझे
तोतले गले की भैरवी


लटकाकर
कमीज की जगह अपना प्यार
दबाए पांव
मैं आया हूँ बाहर
देहरी के बीच
खड़ी है मेरी हक़ीकत
जिसकी आंखों में फैली है
मेरी सराय
भरे-भरे हाथों लौटने की
मेरी प्रतीक्षा
रुई के फोहों सी
रोटियों की गांठ
थमादी है मेरे हाथ में
शुतुरमुर्ग हुआ
चल दिया हूँ मैं
कूड़े के ढेर में से ही
अदेही सर्वव्यापी
बनाकर रखे गए
सुर्ख सवेरे की तलाश में


न तो दहकता सूर्य
और न ही
सुर्खियां बिखेरती दिशा ही
आई है मेरे सामने
गुम्बदों ताजियों का
तैरता आकाश ही गुजरा है
मेरे ऊपर से


बीमार हवा और
ज़र्द धूप से
सूज गई आंखें
जब भी फिराई है चारों ओर
लोहे के जंगल में ही
पाया है खुद को
ओर झूझने लगा हूँ
दे दी गई आग से
जो मेरी नहीं होती
जो भी बनता है
पिघलता है मुझसे
निगल जाती है सुरसा
दमाग तक झुलस देती है
पेट में भभकी अंगीठी
फेंकता हूँ
भीतर की ओर
रोटियों के साथ पानी


आज भी नहीं बनी है
मेरी यात्रा की तस्वीर
पर जंगल के जमादारों के पास
होती है मशीन
काट-छांटकर
बना लेते हैं
बहुत कुछ मुझसे


दुहरती-तिहरती रहती हैं
कर्कशा आवाजें
रेंकता है सायरन
आजाद कर देते हैं मुझे
लोहे के दांत
जेबां-जोड़-जोड़ में
भर गया होता है नमक
देखता हूँ
खास अन्दाज को
तेवर बदलते
अंधेरा खिलाए जाने के खिलाफ
ऊंचे मचान पर
करते हुए नाटक


सोचता हूँ
आज तो गड़ा ही दूं
इस खास अन्दाज के
तेवर पर
अपनी आंख
जड़लूं कान के किवाड़े
सुनूं ही नहीं
मुट्ठियों में भींचकर
अपना तनाव
बोलता चला जाऊं
बर्फ सी उछलती
आवाजों के बीच
फोड़ दूं मैं अपने
धीरज का अलाव
कहूं-नहीं दिखेगी
कांच में से
जीवित तक़ाज़ों से
किलबिलाती मेरी सराय
बनेगी हीं नहीं


हंसने की हसरत में ही
बाहर से भीतर तक
तार-तार हो गई
मेरी हक़ीक़त की
कोई तस्वीर


ऐसे बोलता ही नहीं
कोई समय
ऐसा भी नहीं होता
उसका शरीर
व्यसनी हो गए हैं हाथ
सुइयां लें
डोरे बंटें पिरायें
सियें सिये जाएं
कतरनी लो कतरनी
चलाओ चलाते ही रहें
कटे उनका बुना
यह जाल
इस सिरे से
उस सिरे तक
            नवम्बर’ 78

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28.गलियों में


गलियों में
भटकते दुख
आ ही गए हैं सड़क पर
देखली है
एक लम्बी सीध
बीच से
लांघा है चौराहा कि
कहने न लग जाए
छूटे गुबार
डूबी हुई आवाज़ की कहानी


वे तो
आसमानों पर टिकाए आंख
नापने को हैं
इतना बड़ा विस्तार
सूंधें हैं हवाएं
लम्बे कर दिए हैं हाथ
कुहासे पोंछ देने
झरोखों के शहर
पहुंचना ही है उन्हें
            दिसम्बर’ 81

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29. पानी की साध


जुत-जुत जुतते
मौन मापते
नागा किये बिना
कोई दिन
सूरज बटोही बैल ऊंट आदमी
बोझ सहेजे कड़ियल कंधे
तभी तभी तो
पुलकती-पुराती है
पानी की साथ
परीढ़े के चेहरे
            मार्च’ 82

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30. गहरा ही सही


गहरा ही सही
अथाह रेत के गर्भ में
फूटता छलछलाता
मिल ही तो जाता है
पानी
अटूट पानी.....
            मार्च’ 82

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31. नहीं


नहीं
आंख की हद तक
कहीं भी तो नहीं सागर
        फिर भी तू
उफनती
भागती है सांय-सांय.....सांय.....
कहां किसमें
जा समाएगी
ओ रेत की नदी


32. नदी

नदी
ओ रेत की नदी
      थम, जरा सी थम
देख तो ले मुझे
हमशक्ल तो नहीं
हम आहैग हूं ही मैं,
एक दरिया में
समाना है मुझे भी
तेरी तरह मुझको भी होना है,
एक तनमन का विराट
फिर अकेले
कहाँ भागे जा रही हो रेत की नदी।
            जून’ 82

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33.रोज सुनता हूँ


रोज सुनता हूँ
कि सुबह
सुलग कर
दोपहर होती ही है
        फिर.....फिर यह
मेरी आंख पर ही
क्यों आ-आ ठरे है-
सुबह की
भलक भर के बाद ही
ठण्डा अंधेरा
            मार्च’ 82

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34. तूने ही


तूने ही
रच दिया होता
        मेरे लिए भी
एक तो
हिलकता नील दर्पण
देखता
पहचान जाता
यह हूँ मैं
            फरवरी’ 82

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35.हाथ ही तो हैं


हाथ ही तो हैं
छानते हैं
सुबह से शाम
        आखी रात
पर्वत दिशा
धरती समुन्दर
अतलान्त को भी


मेरी देह से जुड़े
ये क्या हैं फिर
        तरेड़ा हो नहीं गया है
जिनसे
आंख भर का ही
अंधेरा.....
            फरवरी’ 82

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36.शब्द ही तो थे


शब्द ही तो थे
जिनसे जाना था
तूने मुझे मैंने तुझे


यह जानना
पहचान हो जाता
बंद कमरों से निकाल
        तुझको और मुझको
रच गया होता सड़क
चलते-चलते
बुन ही लेता एक अलफी


तुझसे, फिर मुझसे ही
दुराहा घड़ लिए जाने से पहले
रु-ब-रु हो
आंखें फैंच कर ही उतार लेता चोला
        तेरा और मेरा


फिर तो अलफी पहन
होना ही पड़ता तुझको और मुझको
हम.....केवल हम
जो देख लेते तुम
और मैं भी
        कि जान लेने को
आकाश जैसी पहचान कर देने
जो आया तो दुभाशिये सा
तेरे और मेरे बीच
पर ठर पसर कर
हो गया वह सन्नाटा....सिर्फ सन्नाटा


सुनता गया है.....बोलते क्यों
बड़बड़ाते टसकते तक तुझे मुझे भी
निगला चाट तक गया है
बोला बोलना चाहा है
        जो-जो भी
तूने मुझे मैंने तुझे


और-और अब तो कोरी निपट कोरी
आंख से ही देखता हूँ
मैं तुझे ऐसे ही तू मुझे
        वह जो
पसवाड़े फिरती रही न लू
बलबलाती लू झपट्टामार
        ले गई वह
मुझसे और तुझसे शब्द.....शब्द.....
जिनसे जाना था
मैंने तुझे तूने मुझे
            मई’ 82

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बकलम हरीश भादानी


11 जून 1933 को हवेली में जन्म, धारक-पोषक दोनों अनुपस्थित। कृपात्मक-मर्यादित पोषण से बने भटकाव ने रेडिकलसोचकों के किनारे ला छोड़ा। वजनी शब्दों में सड़काऊ बातें सुनीं तो जुनून में हवेली की आखिरी सीढ़ी भी उतर आया। सड़क पर नारे थे, जुलूस, पर्चे, अखबार, पुलिस, जेल, बहसें, बड़ी-बड़ी योजनायें, टैक्नीकलर सपने.....और भी बहुत कुछ था.....इस बहाव में बी.ए., आधे एम.ए. और कविता ही हाथ लगी।
1961-73 तक वातायन मासिक का सम्पादन प्रकाशन, और जुड़ गया वैचारिक पक्षधरता और सम्प्रेषण की अनिवार्यता का आग्रह। बम्बई-कलकत्ता में कलमी मजूरी, आदिम से आदमी तक (कथासंकलन) संकल्प स्वरो के (काव्य-संकलन) का संपादन।
अधूरेगीत-1959, सपन की गली-1961, हंसिनी या दकी-1962, सुलगते पिण्ड, उजली नजर की सुई-1966 और तेरह वर्ष बाद.....नष्टो मोह.....1979 व अब सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविता संग्रह)।

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हरीश भादानी  आडी तानें सीधी तानें

1 comment:

डॉ.अभिज्ञात said...

सन्नाटे का शिलाखंड पढ़कर आपसे और प्रभावित हुआ। पहले भी आपको कई बार पढ़ा है खास तौर पर आपके गीत जो मैंने अरसा पहले आपकी आवाज़ में सुने थे जो विशेष तौर पर प्रभावित करते हैं। प्रतिबद्ध रचनाशीलता के बावजूद संवेदनशीलता और कविता का सौन्दर्य आपके यहां बरकरार है जो बाद की पीढ़ी के रचनाकारों के सीखने लायक है। -अभिज्ञात 09830277656